- लाठी में गुण बहुत है - रामजी प्रसाद " भैरव " ललित निबन्ध
गाँवों में आम बोल चाल की भाषा में लाठी को गोजी बोला जाता है । यह सर्व प्रचलित शब्द है । गोजी , लाठी , हुरा , सोंटा आदि शब्द एक ही शब्द के पर्याय हैं । इसके उच्चारण मात्र से अर्थ बोध होने लगता है । शब्द के संदर्भ में विद्वानों की यह उक्ति कितनी सटीक व्याख्या करती है -" जो सुनि पड़े सो शब्द है , समझि पड़े सो अर्थ ।" सार्थक शब्दों की यह विशेषता होती है कि उसका एक निश्चित अर्थ होता है ।
ललित निबंध

रामजी प्रसाद "भैरव"
10:44 AM, September 1, 2025
लाठी , लठ्ठ , सोंटा , हुरा और भी जाने कितने नाम होंगे , प्रांतीय भाषा , बोली में लेकिन हमारे यू .पी में तो इसे लाठी ही ज्यादा कहते हैं । हमारे यहां हिंदी साहित्य में एक कवि हुए जिन्हें गिरधर कविराय के नाम से जाना जाता है । उन्होंने लाठी को बहुत महिमा मंडित किया है । करना भी चाहिए । एक लाठी में जाने कितने गुण छिपे हैं । लाठी का प्रचलन कब से है , यह कहना थोड़ा मुश्किल है । लेकिन मनुष्य का साथी तो प्राचीन काल से ही होगा । आइये पहले कवि गिरधर के कुंडलियां छंद से उसके गुणों को समझने का यत्न करें ।
" लाठी में गुण बहुत है , सदा राखिये संग ।
गहरो नदी , नारा जहाँ , तहाँ बचावे अंग ।
तहाँ बचावे अंग , झपटि कुत्ता को मारे ।
दुश्मन दावागीर होय , तिनहूँ को झारे ।
कह गिरधर कविराय , सुनों हे धूर के बाठी ।
सब हथियारन छाड़ि , लीजै हाथ में लाठी ।।
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याद होगा आप को पहले गणित में एक लठ्ठ का सवाल आता था । जिसमें होता ये था कि मान लीजिए किसी लठ्ठ का इतना भाग कीचड़ में , इतना भाग पानी में , और इतना भाग पानी के ऊपर तो लठ्ठ की लंबाई कितनी होगी । कम से कम मेरे पीढ़ी या उससे पूर्व के तो इस सवाल से निश्चय ही परिचित होंगे । उस समय में यह सवाल किसी की खोपड़ी खंगालने के लिए काफी होता था । खैर , इसकी प्रचलित मान्यता यह थी कि यह नदी की गहराई मापने के काम आती थी । इसी पर एक लोक प्रचलित लोकोक्ति है -" लेखा जोखा थाहें , लइका डूबल काहें ।" इसका मतलब है जिस समय अनजान नदियों को पार करना होता था , और किसी प्रकार के नाव आदि साधन का अभाव था , ऐसे में लोग लठ्ठ के सहारे ही नदी को पार कर जाते थे । क्यों कि उस समय के लोग अपना अगला कदम लाठी से उसकी गहराई मापने के बाद ही बढ़ाते थे । ताकि किसी प्रकार की कोई अप्रिय घटना न घटे । दूसरे यह कि राह में कुछ मनशोख़ कुत्ते भी मिल जाते हैं , जो बेवज़ह भौकने के साथ आदमी को काट भी लेते हैं । ऐसे में अगर लाठी साथ में है ,तो कुत्ते के झपटने से पहले ही उसे खदेड़ा जा सकता है । तीसरी बात यह महत्वपूर्ण है कि अगर कोई दाही दुश्मन आप को अकेला पाकर घात करना चाहे तो लाठी एक अस्त्र का रूप धारण कर कई कई मुस्टंडों को धूल चटा सकता है । लेकिन यहाँ एक बात का उल्लेख करना आवश्यक समझता हूँ कि जिस जमाने की यह बात होगी , यह जमाने में आज के आधुनिक हथियारों का अभाव था , लाठी मर्दानगी की निशानी थी । मर्द लोग मर्दानगी से लाठी भाँजते थे । खुद मैंने भी अपनी आँख से देखा है , सैकड़ों लोगों को एक साथ लाठियां चलाते । तड़ तड़ बजती लाठियों के शोर और चीख पुकार के बीच युद्ध जैसा माहौल देखा है । लोगों को धूल चाटते देखा है । खून से लथपथ देखा है । स्त्रियों के सामूहिक चित्कार को देखा है । यहाँ कवि गिरधर यही संकेत करना चाहते हैं । वह एक बात और कहते हैं , बड़े मर्म की बात कहते हैं , बड़े समझदारी की बात करते हैं । कहते है कि सब हथियारन को छाड़ि , लीजै हाथ में लाठी । यह बात वह ऐसे ही नहीं कह देते, बल्कि सोच समझकर कहते हैं । लाठी आत्मरक्षार्थ सबसे बड़ा अस्त्र है । कम खर्च में आसानी से मिलने वाला है । इस अस्त्र के लिए आप को सरकार से परमिशन नहीं माँगना पड़ेगा । कहीं सुरक्षित जगह पर छिपा कर नहीं रखना पड़ेगा । लाठी तो कहीं कोने अतरे रह लेगी । उसे कोई सौतिया डाह थोड़े है । एक घर में कई कई लाठियां रह लेती हैं । कभी लाठी के शौकीन लोग , लाठी रखना जानते थे तो , उसकी साज सज्जा भी जानते थे । लाठी को मजबूत बनाने के लिए उसे तेल पिलाते थे । रगड़ घिस्स करते थे । कोई कोई तो लोहे के छल्ले पहनाता था । ऐसी लाठी को लोहबन्ना वाली लाठी कहा जाता था । लाठी भाँजने वालों का घण्टों का रियाज था । लठैत दम साधे घण्टों भिड़े रहते थे । कभी कभी लोग ऐसे दृश्य को देखकर दाँतों तले अँगुली दबा देते थे ।
लाठी का एक प्रकार बनेठी भी है । इस प्रकार के लाठी में दोनों सिरों पर पीतल की टोपी चढ़ी होती है । जो प्रायः किसी उत्सव या पर्व पर खेल करतब दिखाने के लिए प्रयोग होती है । बनेठी भाँजना एक चर्चित मुहावरा भी है । लाठी का प्रचलन तब से आज तक अनवरत है । लाठी बुढ़ापे का साथी है । गांधी जी भी एक समय बाद लाठी की सहायता लेते थे । उसका एक ऐतिहासिक पक्ष है । कहा जाता है कि गांधी जी जब दांडी मार्च कर रहे थे , तो किसी ने सहारे के लिए उनके हाथ में लाठी पकड़ा दी । तब से अंतिम समय तक उनके हाथ में लाठी थी । गाँधी जी का चश्मा तो लोगों याद रहा , लेकिन लाठी नहीं , कितनी विचित्र बात है । हमारे यहाँ एक पर्व पचइयाँ है । यह शब्द लोक भाषा का है । वैसे इसे नागपंचमी के रूप मे मनाया जाता है । इस दिन का बच्चों और युवाओं को इंतजार होता है । घर घर पूड़ी मिठाई बनती है । इस दिन नाग देवता को दूध पिलाने की परंपरा है । खैर , मैं जिस बात का यहाँ उल्लेख करना चाहता हूँ । वह है हर गाँव में होने वाले विविध प्रकार के खेल , कुश्ती , कबड्डी , ऊंची कूद , लम्बी कूद , कुड़ी , दौड़ , लाठी भांजना आदि । इसको लेकर पूर्व से बड़ी तैयारियां होती हैं । यहाँ एक बात पर जोर देना चाहूँगा , कि इस भौतिक और आधुनिकता की खोल ओढ़े लोगों ने पर्वों का बेड़ा गर्क कर दिया है । शहरी चकाचौंध ने गाँव तक असर छोड़ा है । नतीजा यह हुआ कि नए युवकों में अपनी प्राचीन परम्पराओं को लेकर कोई विशेष उत्साह नहीं है । इसको मैं बड़ा हानि मानता हूँ , फिर भी गाँवों में अब भी कुछ खेल तमाशे होते हैं । एक बात और मुझे याद आ रही है । कभी गाँवों में सौ पचास लठैत जरूर होते थे , जो मौके पर गाँव की रक्षा में तत्पर रहते थे । आप ने समर्थ गुरु रामदास का नाम अवश्य सुना होगा । वे छत्रपति शिवा जी के गुरु थे । एक घटना सुनने में आती है कि उन्होंने अत्याचारी मुगलों के ख़िलाफ़ महाराष्ट्र के गाँवों के युवकों को प्रशिक्षण दिया । उन्होंने कुश्ती लड़ाई । लाठी भांजना सिखाया । धीरे धीरे उसका प्रभाव यह हुआ कि देखा देखी सैकड़ों गाँवों में लठैतों की फौज तैयार हो गयी । ऐसा माना जाता है कि आगे चलकर वही शिवा जी के सिपाही बने ।
आज के आधुनिक हथियारों ने लाठी के अस्तित्व को लील लिया है । लेकिन अच्छी बात यह है कि गाँवों में अब भी घर घर लाठी पायी जाती है । राष्ट्रीय स्वयं सेवक संघ में लाठी प्रशिक्षण का एक आयोजन अब भी होता है । लाठी किसानों का साथी है । किसान जब खेत घूमने निकलते हैं तो अब भी लाठी संग साथ रखते हैं ।
लाठी बुढ़ापे का सहारा है । मनुष्य जब बुढ़ापे में प्रवेश करता है तो एक समय बाद उसे लाठी की आवश्यकता होती है । लाठी उसकी हिम्मत है , उसकी मददगार है । उसका प्रिय दोस्त है । एक चर्चित मुहावरा है , अंधे की लकड़ी । अंधे आदमी को भी सहारे की जरूरत होती है । कोई कितना भी प्रिय हो , हर समय लाठी बनकर उसके साथ नहीं रह सकता , ऐसे में लाठी उसका सहारा बनती है । अंधा व्यक्ति ठक ठक करते हुए जीवन गुजार देता है । लाठी निर्जीव होकर भी सजीव की भाँति उसका ख्याल रखती है । कदम कदम पर उसकी रक्षा करती है ।
लाठी सबके हाथ में शोभा नहीं देती , उसके लिए मर्द आदमी चाहिए । गठीला और कसरती बदन हो , चेहरे पर रुआबदार मूँछ हो , सिर पर साफा हो , देशी धोती , कुर्ता और पैरों में बढ़िया जूता , फिर देखिए उसके हाथ में लाठी कितनी शोभा बढ़ाती है । लाठी का उल्लेख करने में एक बात मैं कहना भूल गया । एक बेंत होती है । बेंत को हाथ में या बाजू में दबा के रखने का चलन था । यह लाठी से पतली और छोटी होती है । पर मजबूत । इसका चलन मेरे ख्याल से अंग्रेजों के आने के बाद हुआ । पुलिस अधिकारी अपने साथ अक्सर बेंत रखते थे और दोषियों को दंडित करते थे । एक घटना आप को स्मरण कराना चाहता हूँ , जिसे आप ने पढ़ा या सुना होगा । एक बार भारत माता की जय बोलने पर , बचपन में चन्द्रशेखर आजाद को अंग्रेज अधिकारी ने बेंत मारने की सजा सुनाई थी । जिसके बाद उन्होंने फिर कभी अंग्रेजों की पकड़ में न आने और आजाद रहने की कसम खायी । जिसे उन्होंने अंतिम दम तक निभाया ।
गाँवों में आम बोल चाल की भाषा में लाठी को गोजी बोला जाता है । यह सर्व प्रचलित शब्द है । गोजी , लाठी , हुरा , सोंटा आदि शब्द एक ही शब्द के पर्याय हैं । इसके उच्चारण मात्र से अर्थ बोध होने लगता है । शब्द के संदर्भ में विद्वानों की यह उक्ति कितनी सटीक व्याख्या करती है -" जो सुनि पड़े सो शब्द है , समझि पड़े सो अर्थ ।" सार्थक शब्दों की यह विशेषता होती है कि उसका एक निश्चित अर्थ होता है । सत्रहवीं शताब्दी में एक अघोर सन्त हुए बाबा कीनाराम उनके हाथ में एक सोंटा रहता था । कहीं कहीं कुबड़ी शब्द भी आता है , लेकिन उसका अर्थ भिन्न हो जाता है । जो भी हो लाठी की गुणवत्ता और मनुष्य की जरूरत का साथी लाठी ही है , इसे चाहे भिन्न भिन्न भाषा बोली में जिस नाम से पुकारा जाता हो ।
लाठी हमेशा मनुष्य का साथी बना रहेगा ।