आत्मा की खोज और जीवन का बोध
अध्यात्म शब्द का मूल अर्थ है—आत्मा से जुड़ना। यह आत्मा केवल देह में बंद इकाई नहीं, बल्कि एक ऐसी चेतना है जो सम्पूर्ण सृष्टि में व्याप्त है। जब हम किसी वृक्ष के नीचे बैठकर शांति महसूस करते हैं, जब किसी बच्चे की मुस्कान हमारे भीतर करुणा जगा देती है, या जब कोई दुख हमें भीतर से विचलित कर देता है—तो यह सब उसी आत्मिक चेतना के संकेत हैं। अध्यात्म इन्हीं संकेतों को पहचानने और उनके साथ तादात्म्य स्थापित कर
धर्म आध्यात्म

7:54 PM, August 30, 2025
मनुष्य के भीतर सदियों से यह प्रश्न कौंधता रहा है—"मैं कौन हूँ?" यही एक सवाल है, जिसने न जाने कितनी सभ्यताओं को चिंतन की ओर मोड़ा, कितने संतों को साधना की राह दिखाई और कितने विचारकों को जीवन का अर्थ खोजने पर विवश किया। यह सवाल न केवल गूढ़ है, बल्कि अस्तित्व का मूल है। इसी सवाल ने दो प्रमुख धाराएँ जन्म दीं—अध्यात्म और दर्शन। पहली हमें अनुभूति की ओर ले जाती है, दूसरी हमें तर्क और विचार की गहराइयों में उतारती है। एक में हृदय की आँखें खुलती हैं, दूसरे में मस्तिष्क का द्वार। दोनों का लक्ष्य एक ही है—जीवन का सत्य और आत्मा की खोज।
अध्यात्म शब्द का मूल अर्थ है—आत्मा से जुड़ना। यह आत्मा केवल देह में बंद इकाई नहीं, बल्कि एक ऐसी चेतना है जो सम्पूर्ण सृष्टि में व्याप्त है। जब हम किसी वृक्ष के नीचे बैठकर शांति महसूस करते हैं, जब किसी बच्चे की मुस्कान हमारे भीतर करुणा जगा देती है, या जब कोई दुख हमें भीतर से विचलित कर देता है—तो यह सब उसी आत्मिक चेतना के संकेत हैं। अध्यात्म इन्हीं संकेतों को पहचानने और उनके साथ तादात्म्य स्थापित करने की साधना है। यह कोई धर्म विशेष नहीं, न कोई कर्मकांड; यह तो वह अंतर्यात्रा है जो किसी मंदिर, मस्जिद या गिरजाघर की दीवारों से परे जाकर हमारी आत्मा से सीधा संवाद करती है।
हमारे देश में अध्यात्म कोई नया विचार नहीं। ऋषियों-मुनियों ने हज़ारों वर्षों पूर्व ही आत्मा, परमात्मा, जन्म-मरण और मोक्ष जैसे विषयों पर गंभीर चिंतन किया था। "अहं ब्रह्मास्मि" (मैं ब्रह्म हूँ) और "तत्वमसि" (तू वही है)—जैसे वाक्य न केवल दार्शनिक उद्घोष हैं, बल्कि आत्मिक अनुभूति के प्रमाण भी हैं। कबीर, रैदास, नानक, तुलसी—इन सभी ने अध्यात्म को आम जनमानस की भाषा में ढाल कर प्रस्तुत किया। उन्होंने बताया कि ईश्वर बाहर नहीं, भीतर है। सच्ची भक्ति वह नहीं जो आँख मूँदकर मंत्र दोहराए, बल्कि वह है जो भीतर की दुनिया को शुद्ध और शांत करे।
दूसरी ओर दर्शन वह प्रक्रिया है जो प्रश्न करता है, सोचता है, और उत्तरों की परतें खोलता है। यह मानवीय विवेक की सबसे सुंदर अभिव्यक्ति है। दर्शनशास्त्र केवल पुस्तकों तक सीमित नहीं, यह जीवन के हर मोड़ पर हमारे निर्णयों, नैतिकताओं और दृष्टिकोणों को आकार देता है। भारत में दर्शन की अनेक धाराएँ रही हैं—सांख्य, योग, न्याय, वैशेषिक, मीमांसा और वेदांत। हर दर्शन ने अपने-अपने तरीकों से यह समझने की कोशिश की कि संसार का मूल क्या है, मनुष्य का उद्देश्य क्या है, और मुक्ति कैसे संभव है। यदि अध्यात्म अनुभव की राह है, तो दर्शन उस अनुभव को समझने और व्यक्त करने का माध्यम।
पश्चिमी दर्शन में भी सुकरात, प्लेटो, अरस्तू जैसे चिंतकों ने नैतिकता, ज्ञान, आत्मा और न्याय पर गहरा मंथन किया। उनके विचारों ने आधुनिक विज्ञान, राजनीति और समाज की नींव रखी। भारत में शंकराचार्य, रामानुजाचार्य, स्वामी विवेकानंद, अरविंद घोष और डॉ. सर्वपल्ली राधाकृष्णन जैसे विचारकों ने दर्शन और अध्यात्म को एक-दूसरे का पूरक मानते हुए जनमानस के लिए सुलभ बनाया। स्वामी विवेकानंद ने कहा था—"धर्म का उद्देश्य है आत्मा को प्रकट करना।"
वर्तमान समय में, जब मनुष्य विज्ञान और तकनीक के चरम पर पहुँच चुका है, तब भी उसके भीतर का खालीपन कम नहीं हुआ है। मानसिक तनाव, अवसाद, मूल्यहीनता और असहिष्णुता—इन सबने यह साबित कर दिया है कि केवल भौतिक उन्नति, मनुष्य को पूर्ण नहीं बना सकती। अध्यात्म और दर्शन आज भी उतने ही प्रासंगिक हैं, जितने वे प्राचीन काल में थे। अध्यात्म मनुष्य को भीतर की शांति देता है, जबकि दर्शन उसे तर्क और विवेक की कसौटी पर जीवन जीना सिखाता है। एक ओर अध्यात्म हमें आत्मा से जोड़ता है, दूसरी ओर दर्शन हमें समाज और मानवता से जोड़े रखने का मार्ग दिखाता है।
इन दोनों धाराओं को एक साथ समझने और अपनाने की आवश्यकता आज पहले से कहीं अधिक है। जब कोई युवा जीवन के उद्देश्य को लेकर भ्रमित होता है, तो उसे केवल कैरियर काउंसलिंग नहीं, बल्कि अध्यात्मिक संतुलन और दार्शनिक दृष्टिकोण की ज़रूरत होती है। जब समाज में असहिष्णुता और वैचारिक कट्टरता फैलती है, तो हमें धर्म के नाम पर विवाद नहीं, बल्कि अध्यात्म की करुणा और दर्शन की विवेकशीलता चाहिए होती है।
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हमारे ऋषियों ने कहा था—"सा विद्या या विमुक्तये" अर्थात् वह विद्या ही सार्थक है जो मुक्ति की ओर ले जाए। यह मुक्ति केवल मृत्यु के बाद मिलने वाली नहीं, बल्कि इसी जीवन में—स्वार्थ, क्रोध, मोह, और अहंकार से ऊपर उठने की मुक्ति है। यही वह अवस्था है जहाँ अध्यात्म और दर्शन एक हो जाते हैं। जहाँ तर्क और भाव एक ही दिशा में बहते हैं। जहाँ मनुष्य स्वयं को केवल एक शरीर नहीं, बल्कि एक उद्देश्य मानकर जीता है।
इसलिए आवश्यक है कि हम इन दोनों को केवल विषय नहीं, जीवन का हिस्सा बनाएँ। हम भीतर झाँकें, और बाहर देखें। हम अनुभव करें, और सोचें भी। हम प्रार्थना करें, लेकिन प्रश्न भी करें। यही संतुलन हमें संपूर्ण बनाता है।
अंततः, अध्यात्म और दर्शन—दोनों ही मानव चेतना के दो पंख हैं। एक पंख भावनाओं का, दूसरा तर्क का। जब ये दोनों पंख संतुलन में होते हैं, तभी आत्मा की उड़ान संभव होती है उस ऊँचाई तक, जहाँ केवल शांति, करुणा और सत्य की रोशनी फैली होती है।
(लेखक भारतीय रेल सेवा के वरिष्ठ अधिकारी हैं। योग, धर्म और अध्यात्म पर गहन चिंतन करते हैं)

मनीष प्रताप सिंह