स्वदेशी सोच और स्वावलंबन का संकल्प
आज देश के सामने अवसर और चुनौतियां दोनों हैं। वैश्विक परिदृश्य में जब बड़ी-बड़ी अर्थव्यवस्थाएं आर्थिक अस्थिरता से जूझ रही हैं, तब भारत ने अपनी विकास दर को स्थिर रखते हुए आशा की किरण जगाई है। यह वही समय है जब हमें ‘आत्मनिर्भर भारत’ का मंत्र केवल सरकारी नीति में नहीं, बल्कि जन-जन के जीवन में उतारना होगा। स्वदेशी को अपनाने का अर्थ यह नहीं कि हम दुनिया से कट जाएं, बल्कि इसका मतलब है कि हम अपने संसाधनों
देश

डॉ. रविकांत तिवारी
12:41 PM, September 2, 2025
भारत का इतिहास गवाह है कि जब-जब हमने आत्मविश्वास को अपनी ताक़त बनाया, तब-तब हमने दुनिया को दिशा दी। कभी प्राचीन भारत का ज्ञान-विज्ञान पूरी दुनिया को आकर्षित करता था; कभी यहां के उद्योग और हस्तकला विश्व व्यापार की रीढ़ हुआ करते थे। यह वही भूमि है जिसने “स्वदेशी” को केवल आर्थिक नीति नहीं, बल्कि सांस्कृतिक आत्मसम्मान का प्रतीक बनाया। महात्मा गांधी का चरखा केवल कपड़ा बुनने का औजार नहीं था, बल्कि वह आत्मनिर्भरता का घोष था। आज इक्कीसवीं सदी का भारत उसी आत्मविश्वास को आधुनिक संदर्भ में जीने के लिए तैयार खड़ा है।
आज देश के सामने अवसर और चुनौतियां दोनों हैं। वैश्विक परिदृश्य में जब बड़ी-बड़ी अर्थव्यवस्थाएं आर्थिक अस्थिरता से जूझ रही हैं, तब भारत ने अपनी विकास दर को स्थिर रखते हुए आशा की किरण जगाई है। यह वही समय है जब हमें ‘आत्मनिर्भर भारत’ का मंत्र केवल सरकारी नीति में नहीं, बल्कि जन-जन के जीवन में उतारना होगा। स्वदेशी को अपनाने का अर्थ यह नहीं कि हम दुनिया से कट जाएं, बल्कि इसका मतलब है कि हम अपने संसाधनों, कौशल और परंपराओं को सम्मान देते हुए वैश्विक स्तर पर आत्मविश्वासी राष्ट्र बनें। यही दृष्टि हमें विश्व मंच पर और सशक्त बनाएगी।
भारत की सबसे बड़ी पूंजी उसका युवा वर्ग है। लगभग 65 प्रतिशत आबादी 35 वर्ष से कम आयु की है। यह वही वर्ग है जो तकनीक, नवाचार और उद्यमिता के जरिए आने वाले दशकों का भारत बनाएगा। पिछले कुछ वर्षों में स्टार्टअप संस्कृति, डिजिटल इंडिया, मेक इन इंडिया जैसी योजनाओं ने युवाओं में आत्मविश्वास का संचार किया है। आज गांव का युवक भी स्मार्टफोन और इंटरनेट के माध्यम से दुनिया भर की जानकारी रखता है। वह न केवल उपभोक्ता है, बल्कि निर्माता और नवाचारक भी बन सकता है। दुनिया की कई बड़ी टेक कंपनियों का नेतृत्व भारतीय मूल के लोग कर रहे हैं, जो यह साबित करता है कि हमारी प्रतिभा को अवसर मिले तो वह वैश्विक मंच पर भी चमत्कार कर सकती है। अब ज़रूरत है कि हम अपने देश में नवाचार को प्रोत्साहन दें, अनुसंधान पर निवेश बढ़ाएं और युवाओं को जोखिम लेने का अवसर प्रदान करें।
स्वदेशी की अवधारणा को अक्सर केवल ‘देसी सामान खरीदने’ तक सीमित कर दिया जाता है, जबकि यह विचार कहीं अधिक व्यापक है। स्वदेशी का अर्थ है अपने संसाधनों का सर्वोत्तम उपयोग, स्थानीय उत्पादों का सम्मान और ऐसी अर्थव्यवस्था का निर्माण जो आत्मनिर्भर हो। गांधी जी के समय में स्वदेशी आंदोलन ने विदेशी कपड़े के बहिष्कार के जरिए स्वतंत्रता आंदोलन को ताकत दी थी। आज हमें स्वदेशी को एक नए रूप में अपनाना है, जहां यह आधुनिक तकनीक, कृषि, उद्योग और शिक्षा में आत्मनिर्भरता का प्रतीक बने। कृषि क्षेत्र में आत्मनिर्भरता का मतलब है आधुनिक तकनीकों का उपयोग, जैविक खेती को बढ़ावा और किसानों को बाजार तक सीधी पहुंच। उद्योगों के क्षेत्र में इसका मतलब है लघु और मध्यम उद्योगों को प्रोत्साहित करना, ताकि रोजगार का सृजन गांवों तक हो।
स्वदेशी और स्वावलंबन केवल भावनात्मक विचार नहीं, बल्कि आर्थिक शक्ति का आधार हैं। जब हम अपने देश में निर्मित वस्तुओं का उपयोग करते हैं, तो हम अपने उद्योगों को मजबूती देते हैं। इससे रोजगार बढ़ता है, पूंजी देश में रहती है और अर्थव्यवस्था आत्मनिर्भर होती है। आज भारत को 2070 तक शुद्ध शून्य कार्बन उत्सर्जन का लक्ष्य हासिल करना है। इसके लिए हरित ऊर्जा, इलेक्ट्रिक वाहन, सौर और पवन ऊर्जा जैसी तकनीकों को बढ़ावा देना जरूरी है। इन क्षेत्रों में आत्मनिर्भरता हमें न केवल पर्यावरणीय दृष्टि से मजबूत बनाएगी, बल्कि वैश्विक ऊर्जा बाज़ार में भारत की भूमिका को भी सशक्त करेगी।
आज का भारत आत्मविश्वास से भरा हुआ है। हम वैश्विक मंचों पर अपनी बात मजबूती से रख रहे हैं। अंतरिक्ष में चंद्रयान और मंगलयान जैसी सफलताएं यह साबित करती हैं कि हमारे वैज्ञानिक किसी से कम नहीं। रक्षा उत्पादन में आत्मनिर्भरता का लक्ष्य भी धीरे-धीरे वास्तविकता बन रहा है। लेकिन यह सब तभी संभव है जब समाज के हर वर्ग को विकास की धारा में जोड़ा जाए। आत्मनिर्भरता केवल आर्थिक नहीं, बल्कि मानसिक और सांस्कृतिक भी है। जब तक हम अपने देशज ज्ञान, परंपराओं और सांस्कृतिक धरोहर पर गर्व नहीं करेंगे, तब तक हम सच्चे अर्थों में आत्मनिर्भर नहीं हो सकते। योग, आयुर्वेद, भारतीय दर्शन और कला जैसी धरोहरें हमारी पहचान हैं, और इन्हें आधुनिक संदर्भों में प्रस्तुत करने की आवश्यकता है।
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आत्मनिर्भर भारत का सपना चुनौतियों से खाली नहीं। बेरोज़गारी, शिक्षा की गुणवत्ता, ग्रामीण-शहरी असमानता और तकनीकी पहुंच जैसी समस्याएं अभी भी हमारे सामने हैं। इनसे निपटने के लिए समग्र दृष्टिकोण जरूरी है। शिक्षा को रोजगारोन्मुखी बनाना होगा, उद्यमिता को प्रोत्साहित करना होगा और स्टार्टअप्स को वित्तीय सहायता देनी होगी। इसके साथ ही ग्रामीण क्षेत्रों में डिजिटल कनेक्टिविटी, स्वास्थ्य सेवाओं का विस्तार और स्थानीय स्तर पर रोजगार सृजन पर ध्यान देना होगा। जब गांव आत्मनिर्भर होंगे, तब देश भी आत्मनिर्भर बनेगा।
भारत की संस्कृति सदियों से ‘वसुधैव कुटुम्बकम्’ के सिद्धांत पर आधारित रही है। आत्मनिर्भरता का अर्थ संकीर्णता नहीं, बल्कि यह है कि हम दुनिया के साथ साझेदारी करें लेकिन अपनी जड़ों को न भूलें। यह आत्मसम्मान का भाव है, जो राष्ट्र को नई ऊर्जा देता है। जब देश का हर नागरिक यह ठान ले कि वह अपने कौशल और संसाधनों का अधिकतम उपयोग करेगा, तब आत्मनिर्भर भारत केवल सपना नहीं रहेगा, बल्कि वास्तविकता बनेगा।
भारत के युवाओं में आज वह ऊर्जा है जो आने वाले वर्षों में देश को नई ऊंचाइयों तक ले जा सकती है। यह वही पीढ़ी है जो नवाचार के दम पर रोजगार सृजन कर सकती है, जो आत्मनिर्भरता को केवल नारा नहीं बल्कि जीवनशैली बना सकती है। स्वदेशी की अवधारणा को नए सिरे से परिभाषित कर, तकनीकी विकास को अपनाते हुए और अपनी सांस्कृतिक धरोहर पर गर्व करते हुए हम एक ऐसे भारत का निर्माण कर सकते हैं जो केवल आर्थिक महाशक्ति ही नहीं, बल्कि नैतिक और सांस्कृतिक नेतृत्व भी कर सके। आज का समय आत्मविश्वास का है। हमें यह समझना होगा कि सशक्त राष्ट्र वही होता है जो अपने बलबूते पर खड़ा हो। भारत के पास संसाधन हैं, प्रतिभा है और सबसे बड़ी पूंजी—उसकी युवा शक्ति। यदि यह शक्ति स्वदेशी और स्वावलंबन के मार्ग पर चलती है, तो आने वाले वर्षों में भारत न केवल आत्मनिर्भर बनेगा, बल्कि विश्व को नेतृत्व देने वाला राष्ट्र बनेगा।
डॉ. रविकांत तिवारी
(लेखक राष्ट्रीय मुद्दों पर लेखन करने वाले वरिष्ठ चिंतक और स्तंभकार हैं।)