रामलीला की प्रासंगिकता, रहस्य और इतिहास
रामलीला का मंचन और रामचरितमानस का पाठ हमें यह सिखाता है कि जहाँ धर्म और भक्ति की शक्ति होती है, वहाँ अन्याय और अंधकार कभी टिक नहीं सकते। यही इसकी वास्तविक महत्ता और प्रासंगिकता है।

1:41 PM, Sep 29, 2025

फीचर डेस्क
जनपद न्यूज़ टाइम्स✍️ अरविंद कुमार मिश्र (उर्वार)
रामलीला का सांस्कृतिक मंचन अनादि काल से बाल्मीकि रामायण और तुलसीदास जी की श्री रामचरितमानस के आधार पर होता रहा है। संस्कृत में कहा गया है—
"यत्र यत्र रघुनाथ कीर्तन तत्र तत्र कृतमस्तकांजलिम्।वाष्पवरिपरिपूर्ण लोचंन मारुति नमन राक्षसान्तकम्।"
अर्थात् जहाँ-जहाँ रघुनाथ (राम) का कीर्तन होता है, वहाँ हृदय में श्रद्धा और भक्ति का सिर झुकाकर आराधना की जाती है।ऐसी मान्यता है कि जहां भी राम लीला होता है वहां पर हनुमान जी किसी न किसी रूप में विद्यमान रहते हैं। प्रभु की प्रसन्नता के लिए रामचरितमानस और रामायण के पाठ से बढ़कर कोई उपाय नहीं है। यही कारण है कि अनादि काल से इन ग्रंथों का श्रवण, मनन, पाठन और अनुष्ठान की परंपरा चली आ रही है। यही रामलीला का भी आधार है।
इतिहास में उल्लेख मिलता है कि पहले यदुवंशियों द्वारा रघुवंश में वर्णित रामायण नाटक खेला जाता था। सुरपुर में जब उन्हें सफलता मिली, तो ब्रजनाभ के बृजपुर में भी आमंत्रित किया गया। वहां लोमपाद द्वारा श्रृंगी ऋषि का आनयन, दशरथ यज्ञ, गंगावतरण, रम्भाभिसार आदि नाटक प्रस्तुत किए गए। इस मंचन में प्रदुम गद एवं साम्य, नांदी, बाजा आदि बजते थे। शूर नामक यादव रावण का नाटक खेल रहे थे, जबकि प्रदुम्न नलकूबर बने थे और साम्य विदूषक की भूमिका निभा रहे थे। इससे यह सिद्ध होता है कि भगवान कृष्ण के समय से ही रामलीला का सफल मंचन प्रारंभ हो गया था।
किन्तु मुस्लिम शासनकाल में लगभग चार सौ वर्षों तक रामलीला बंद रही। यहाँ तक कि अकबर के शासन में तुलसीदास जी को आगरा किले में बंद कर दिया गया। रामभक्ति की अनन्य भावना रखने वाले तुलसीदास जी को बंदरों के उत्पात से तंग होकर उन्हें राजा को जेल से रिहा करना पड़ा। इसके उपरांत गोस्वामी तुलसीदास जी काशी आ गए काशी में एक प्रेत के माध्यम से उन्हें हनुमान जी से मार्गदर्शन प्राप्त हुआ और वहीं उन्होंने रामचरितमानस की रचना की।
कुछ विद्वानों का मानना है कि तुलसीदास जी के शिष्य मेघा भगत ने रामलीला का आरंभ 16वीं शताब्दी में वाराणसी से किया, जो आज भी रामनगर में अनवरत होती आ रही है। केवल भारत में ही नहीं, कई देशों में भी रामलीला का मंचन होता है—थाईलैंड, मॉरीशस, इंडोनेशिया आदि देशों में जनता इसे श्रद्धा और भावभक्ति के साथ देखती है। सनातन धर्मालंबियों का मानना है कि जहाँ-जहाँ रामायण का पाठ और रामलीला होती है, वहाँ हनुमान जी किसी न किसी रूप में अवश्य उपस्थित रहते हैं। तुलसीदास जी ने कहा भी है—
"जाकी रही भावना जैसी तिह मूरति देखी तिह जैसी।"
वर्तमान समय में रामलीला की प्रासंगिकता और भी बढ़ गई है। राम ने राक्षसों और अत्याचारी शक्तियों का नाश कर धर्म की स्थापना की और समाज के वंचित वर्गों को मुख्य धारा से जोड़ा। यही कारण है कि कहा जाता है—"राम ही सनातन है, सनातन ही राम है।"रामो: विग्रवान धर्म:सनातन धर्म की महत्ता भी रामलीला से स्पष्ट होती है। इसमें निहित हैं—"अतिथि देवो भव, वसुधैव कुटुंबकम्, सर्वे भवन्तु सुखिनः, सर्वे भवन्तु निरामयः।"आज के समय में कई लोग राम, रामचरितमानस और सनातन धर्म पर सवाल उठाते हैं। ऐसे में रामलीला के माध्यम से यह समझाना आवश्यक है कि सनातन धर्म ने पूरे विश्व के कल्याण और समाज को शांति, समरसता और नैतिकता की सीख दी है।
रामायण, रामचरित, रामलीला सभी मिलकर एक ऐसी शक्ति हैं, जो व्यक्ति के जीवन में अद्भुत परिवर्तन ला सकती हैं। रामनाम का जाप, रामायण का पाठ या हनुमान चालीसा का उच्चारण अद्भुत चमत्कारिक शक्ति प्रदान करता है। वैज्ञानिक भी इस रहस्य से आश्चर्यचकित हैं। कवि अरविंद कुमार मिश्र उर्वार ने अपने दोहे में संक्षेपित किया है—
"राम नाम मणि मंत्र है, सदा जपे धरि ध्यान।सारे हो कारज सुफल, कहे वीर हनुमान।"राम नाम की महिमा से ही राम नाम का उल्टा जाप करके भी वाल्मीकि जी बहुत बड़े कवि हो गए और उन्होंने रामायण ग्रंथ की रचना कीसारांशतः रामलीला केवल नाट्यकला नहीं, बल्कि धर्म, संस्कृति, नैतिकता और समाज सुधार का एक अद्वितीय माध्यम है। यह हमें हमारी सनातन परंपरा से जोड़ती है, हमें भक्ति, साहस और सदाचार की सीख देती है और वर्तमान समाज में नैतिक मूल्यों की स्थापना करती है।
रामलीला का मंचन और रामचरितमानस का पाठ हमें यह सिखाता है कि जहाँ धर्म और भक्ति की शक्ति होती है, वहाँ अन्याय और अंधकार कभी टिक नहीं सकते। यही इसकी वास्तविक महत्ता और प्रासंगिकता है।
(लेखक धानापुर रामलीला समिति के अध्यक्ष हैं)
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डॉ अरविन्द मिश्र (उर्वार)