पंच परिवर्तन और संघ
संघ के विचार में, राष्ट्र निर्माण का मूल कर्तव्यनिष्ठ नागरिक है। शाखाओं और प्रशिक्षण शिविरों में स्वयंसेवकों को सिखाया जाता है कि अधिकारों से पहले कर्तव्य का बोध आवश्यक है। जब हर व्यक्ति राष्ट्र को परिवार मानेगा, तब भारत विश्व का नेतृत्व करेगा। संघ के आपदा राहत, ग्राम स्वच्छता, शिक्षा सेवा केंद्र और स्वास्थ्य अभियानों के माध्यम से लाखों स्वयंसेवक सेवा और अनुशासन की भावना से समाज में सक्रिय हैं।
लखनऊ

8:01 AM, Oct 10, 2025
फीचर डेस्क
जनपद न्यूज़ टाइम्स
✍️ पवन शुक्ला (अधिवक्ता)
राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ अपने शताब्दी वर्ष में केवल अपनी यात्रा का उत्सव नहीं मना रहा, बल्कि भारत के पुनर्निर्माण की दिशा में एक विचार-यात्रा प्रारंभ कर रहा है। इस यात्रा का केंद्र है “पंच परिवर्तन”, एक ऐसी रूपरेखा जो व्यक्ति, समाज और राष्ट्र तीनों स्तरों पर सकारात्मक परिवर्तन की मांग करती है। संघ का यह प्रयास केवल संगठनात्मक ऊर्जा का विस्तार नहीं, बल्कि राष्ट्र की चेतना को नई दिशा देने वाला सामाजिक संकल्प है। भारत आज सामाजिक विषमताओं, पारिवारिक विघटन, पर्यावरणीय असंतुलन, आर्थिक परनिर्भरता और नागरिक दायित्वों की शिथिलता जैसी अनेक चुनौतियों का सामना कर रहा है। इन परिस्थितियों में “पंच परिवर्तन” केवल विचार नहीं, बल्कि इन समस्याओं के समाधान का समग्र मार्गदर्शन बनकर सामने आता है। यह पांच परिवर्तन—सामाजिक समरसता, कुटुंब प्रबोधन, पर्यावरण संरक्षण, ‘स्व’ आधारित जीवनशैली और कर्तव्यनिष्ठ नागरिक निर्माण—भारतीय समाज के नवजागरण की आधारशिला के रूप में उभरते हैं।
सामाजिक समरसता : विविधता में एकता का सजीव दर्शन
समरसता भारतीय समाज की आत्मा है। यह केवल विचार नहीं, बल्कि जीवन का व्यवहार है। संघ का मानना है कि जाति, धर्म, भाषा या क्षेत्र के आधार पर कोई भेदभाव न रहे, तभी भारत अपने सांस्कृतिक स्वरूप को साकार कर सकेगा। समानता और आत्मीयता यही समाज को जोड़ने की वास्तविक शक्ति है। इसी भावना को साकार करने के लिए संघ के स्वयंसेवक गाँव-गाँव में सहभोजन, समरस उत्सव और संयुक्त सेवा परियोजनाएँ आयोजित कर रहे हैं। “एक मंदिर – एक जलस्रोत – एक श्मशान” जैसे अभियानों ने ग्रामीण समाज में बंधुता का वातावरण बनाया है। श्रीराम और केवट का प्रसंग आज भी इस समरसता का प्रतीक है, जहाँ सम्मान और आत्मीयता जाति या वर्ग से ऊपर उठ जाती है।
कुटुंब प्रबोधन :परिवार ही राष्ट्र की प्रथम इकाई
भारतीय संस्कृति में परिवार केवल सामाजिक संस्था नहीं, बल्कि संस्कार की प्रयोगशाला है। आज के यांत्रिक जीवन में जब संवाद घट रहा है और उपभोक्तावाद बढ़ रहा है, तब कुटुंब प्रबोधन की आवश्यकता पहले से अधिक महसूस होती है। संघ के “परिवार प्रबोधन अभियान” के अंतर्गत देशभर में संयुक्त भोजन, साप्ताहिक पारिवारिक संवाद, सांस्कृतिक आयोजन और संस्कार वर्ग जैसे प्रयास किए जा रहे हैं। इनसे पीढ़ियों के बीच संवाद पुनः स्थापित हो रहा है और परिवारों में भारतीय जीवन-मूल्य पुनर्जीवित हो रहे हैं। सशक्त परिवार ही सशक्त राष्ट्र की नींव रखता है। बालगोकुलम् और संस्कार भारती जैसी पहलें इस कुटुंब संस्कृति को नई ऊर्जा प्रदान कर रही हैं।
*पर्यावरण संरक्षण* — प्रकृति के प्रति कृतज्ञता का भाव
भारत का दृष्टिकोण सदैव “प्रकृति मातरं वंदे” का रहा है। संघ इस परंपरा को आधुनिक संदर्भ में पुनः स्थापित कर रहा है। वृक्षारोपण, जल-संरक्षण, प्लास्टिक-त्याग, जैविक खेती और नदी-सफाई जैसे अभियानों के माध्यम से संघ के स्वयंसेवक समाज में पर्यावरणीय संतुलन की चेतना फैला रहे हैं। प्रकृति केवल संसाधन नहीं, बल्कि सृजन की सहयात्री है। संघ का अभियान “एक वृक्ष — मातृभूमि के नाम” इस कृतज्ञता का प्रतीक है। यह केवल पर्यावरणीय कार्यक्रम नहीं, बल्कि भारतीय जीवन-दर्शन की पुनर्स्थापना है।
