ओ सुंदरी .... ललित निबन्ध रामजी प्रसाद " भैरव "
मेरी उम्र से छोटी है वो , पर प्रेमिका नहीं , रिश्ते का कोई नाम नहीं , फिर भी उसे देखने का मन करता है। कितना उसे निहारूँ , पलक झपकती ही नहीं । अवरोध आ कर खड़े हो जाते हैं । उदीप्त मन पर बार बार कुहासे की चादर पड़ जाती है । जैसे किसी उड़ते परिंदे को धोखे से बहेलिया ने फंसा लिया हो । बहेलिए के दड़बे में पड़ा परिंदा , कातर भाव से अपने छूटने की कल्पना में लगा पछता रहा है । मैं उसकी आँखें देखता हूँ , कविता फ

रामजी प्रसाद "भैरव"
9:23 AM, Oct 14, 2025

रामजी प्रसाद "भैरव"
जनपद न्यूज़ टाइम्समेरी उम्र से छोटी है वो , पर प्रेमिका नहीं , रिश्ते का कोई नाम नहीं , फिर भी उसे देखने का मन करता है। कितना उसे निहारूँ , पलक झपकती ही नहीं । अवरोध आ कर खड़े हो जाते हैं । उदीप्त मन पर बार बार कुहासे की चादर पड़ जाती है । जैसे किसी उड़ते परिंदे को धोखे से बहेलिया ने फंसा लिया हो । बहेलिए के दड़बे में पड़ा परिंदा , कातर भाव से अपने छूटने की कल्पना में लगा पछता रहा है । मैं उसकी आँखें देखता हूँ , कविता फूटती है । हृदय के तट बन्ध वेग के बहाव में टूट जाते हैं । पिघलकर बह उठते हैं । जैसे ग्लेशियर पिघल कर द्रवीभूत हो उठते हैं , वैसे मैं भी । कुछ कहना चाहता हूँ , पर शब्दों में नहीं । उसके लिए शब्द नहीं बने हैं। शब्द तो कवियों ने अपनी नायिकाओं के लिए प्रयुक्त कर दिया है । नृत्य मुझे आता नहीं । कोई वाद्य यंत्र मेरे लिए निष्प्राण है । क्यों कि कला से मैं कोसों दूर हूँ । एक मूर्ख हठी प्रेमी की तरह देखना है उसे , सबसे छुपकर , सबसे छुपाकर , कबीर की तरह , कबीर भी अपने प्रेमी को आंखों में बसा लेते है । एक हठ के साथ , एक जिद के साथ , एक अधिकार के साथ , प्रेम करने वाला अधिकार चाहता है । कबीर भी चाहते हैं , और मैं भी । कबीर कहते हैं -
नैना अंतर आव तू , लेहु पलक झपेहु ।
ना देखूं किसी और कू , ना तुझे देखन देहु ।।
मुझे लगता है कबीर वाला प्रेम भी आसान नहीं है । आँखों के सामने नजारें है । जाने कितने दृश्य आते जाते हैं । कुछ अच्छे लगने वाले होते तो कुछ मन को व्यथित करने वाले , एक दिन की बात होती तो होती , यहाँ तो रोज सुबह शाम में जाने कितने दृश्य परिवर्तित होते हैं । यह किसी प्रेमी के लिए आसान बात नहीं है । किसी एक दृश्य को जीवन भर के लिए आँखों में कैद कर ले । यह दुष्कर है , कठिन है , असहज है ।जीवन झंझावातों से गुजरने वाला एक अंतहीन पथ है । मुझे जायसी के पद्मावत की याद आ रही है । राजा रत्नसेन अपनी व्याहता स्त्री नागमती को छोड़कर , दूसरी स्त्री पद्मावती को पाने के लिए चले जाते है । यह हिन्दू समाज में ठीक नहीं माना जाता । नागमती अपने पति के वियोग में पथ हेर रही है । ढूंढ रही है ।
" नागमती चितउर पथ हेरा । पिऊ जो गए पुनि कीन्ह न फेरा । "
अब तो सूफ़ी परम्परा वाले या विद्वान समझे कि यह कैसा प्रेम है , जिसे दार्शनिक अंदाज में ढंक दिया गया या फिर जो सामान्य दृष्टि देख पाती है , वही है । मैं पोंगा पंडित इस पचड़े में नहीं पड़ना चाहता । विद्वान बतियाते हैं कि राधा कृष्ण से बड़ी थी । और किसी की ब्याहता भी थी । जो भी हो पर दोनों में प्रेम तो था न । प्रेम कोई एक हाथ से बजने वाली ताली नहीं है । प्रेम के लिए दो हाथों का होना जरूरी है । जब प्रेम परवान चढ़ता है । ऐसा ही कुछ घटित होता है ।
किसी सड़क छाप दार्शनिक का मत है अगर एक तरफा प्रेम करने वालों की सूची बनाई जाय , तो एक अलग देश बन जायेगा । है न विचित्र बात । पर सच है । आप कल्पना करिए यदि ऐसे प्रेमियों का कोई देश हो तो क्या दशा होगी उस देश की । मुझे लगता है वहाँ हवाओं की जगह आहें चलती मिलेगी । चाकरी के नाम पर एक दूसरे को सांत्वना देने वाले लोग मिलेंगे । वहाँ भूख प्यास का बेहद अभाव होगा । चारों ओर विरह के नग्में गूंजेंगे । सिसकियां लोगों के घरों में होने का प्रमाण होंगी । आकाश में पतंगों की जगह प्रेम से भरे ख़त लहरायेंगे । विरह में पेड़ पौधे मुरझाए मिलेंगे । जगह जगह आँसू , खून का कतरा बनकर बह उठेंगे । उस देश के व्यवसाय भी प्रेमियों की जरूरतें देखकर फलेंगे फूलेंगे । जगह जगह सहायता केंद्र होंगे । उस देश में अदालतें नहीं होंगी । थाना पुलिस भी नहीं होगी ।
कबीर का अंदाज भी कितना निराला है ।बात तो वो भी प्रेम की ही कहते हैं।
" प्रेम ना बारी उपजै, प्रेम ना हाट बिकाई ।
राजा परजा जे रुचि रहै , शीश दे ले जाई ।।
कबीर की बात मैं सत्य मानता हूँ । प्रेम हाट में बिकने वाली चीज नहीं है । जिसे लोग प्रेम समझकर खरीदते हैं ,वह देह है । देह को प्रेम समझने वाले मूर्ख क्या कम है ।नहीं , बिल्कुल नहीं । भरे पटे हैं । जगह जगह । कोने अतरे । हर जगह । गली , कूचे , गाँव , नगर , शहर , कोई जगह नहीं , जहाँ ऐसे मूर्ख न हों । विद्वान लोग कहते है , लैला कुरूप थी , पर मजनूं का दिल आ गया । आ गया तो आ गया । प्रेम सूरत देखकर नहीं , सीरत देखकर किया जाता है । और प्रेम किया भी नहीं जाता । बस हो जाता है । प्रेम बाजारू चीज नहीं है । प्रेम साधना है । साधना एक दिन में नहीं होती है । वर्षों लग जाते हैं । जीवन लग जाता है । जन्म लग जाते हैं । कई कई जन्म लग जाते हैं । एक बात याद आ रही है । कृष्ण की मुरली की तान सुनकर सारी गोपियाँ दौड़ी चली आती थी । वो सब की सब कृष्ण से प्रेम करती थी । सब गोपियां एक वय की नहीं थी । हर वय की थी । हर वर्ण की थी । गोरी भी और काली भी । सुंदर भी , कुरूप भी । कोई बताएं क्या कृष्ण का गोपियों से प्रेम दैहिक था । नहीं, कदापि नहीं । प्रेम दैहिक हो ही नहीं सकता । प्रेम तो आत्मा का आत्मा से होता है । उसमें लैंगिक विषमता भी समाप्त हो जाती है । धर्म सम्मत बात यह हैं कि यह गोपियां कई जन्मों से भगवान के प्रेम के भूखे ऋषि मुनि थे , जिनकी साधना से प्रसन्न होकर कृष्ण रूप भगवान ने रास रचाकर प्रेम वर्षा की । कई जन्मों की उनकी साध मिट गयी । प्यास मिट गयी । जीवन धन्य हो गया । तृप्त हो गया ।
गणित वाले एक एक दो जोड़ते हैं । जोड़े कौन रोकता है , पर प्रेम करने वाले एक एक दो नहीं होते , वो हमेशा एक एक एक ही होते हैं । वस्तुतः प्रेम दिमाग से नहीं , दिल से किया जाता है । कवि घनानंद ने क्या खूब लिखा है ।
" तुम कौन सी पाटी पढ़े हो लला , मन लेहु पे देहु छटाँक नहीं।
आओ , आओ गणित वालों , लगाओ गणित । अरे प्रेम में गणित नहीं लगाया जाता । प्रेम समर्पण मांगता है । सूरदास जी अंधे थे , पर प्रेम की अनन्त ऊँचाई को छू आये । जिसे आप भमर गीत में गोपियों की अंतर्वेदना में समझ सकते हैं ।
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गोपियाँ उधौ जी से कहती हैं ।
" उधौ मन नाहीं दस बीस ।
एक हुतो सो गयो स्याम संग , को अवराधे ईश ।
लो सुन लो बात , जब तुम्हें एक अंधे आदमी की बात समझ में नहीं आ सकती , तो काहे को आँख वाले , तुम तो आँख होते हुए भी अंधे हो । जब तुम दृष्टि नहीं समझ सकते तो अंतर्दृष्टि क्या खाक समझोगे । अच्छा छोड़ो कविवर बिहारी को लो , बड़े रसिक कवि की संज्ञा दी जाती है । रस तो है । प्रेम में रस ही रस , बिना रस के प्रेम कैसा । प्रेम का रस पीने के लिए मुँह की आवश्यकता नहीं । हृदय की प्यास मुँह से नहीं बुझाई जा सकती , उसके लिए आँखे ही काफ़ी हैं ।
" कहत नटत रीझत खीझत , मिलत खिलत लजियात ।
भरे भवन में करत हौ , नैनन ही सो बात ।।
सगे , सम्बन्धियों से भरे भवन में नायक - नायिका परस्पर नेत्रों से सारी बात कर डालते हैं । इसमें लज्जा नहीं , संकोच नहीं , भय नहीं । प्रेम व्यापार और प्रेम का व्यापार दोनों में अंतर होता है । प्रेम करने वाला व्यापार नहीं कर सकता । और व्यापार करने वाला प्रेम नहीं कर सकता । प्रेम तो सहज है । सरल है। स्वाभाविक है ।
" कागद पर लिखत न बनत , कहत सन्देसु लजात ।
कहि हैं सबु तेरो हियों , मेरे हिय की बात ।।
अब देखिए न , एक प्रेमिका अपने प्रेमी को खत लिखने बैठी । प्रेम विह्वल नायिका के नेत्रों से आँसू की बूँदें टपक पड़ी । उसकी लिखावट मिट गयी । उसके प्रयास विफल हो गए । अपने हृदय की विरह पीड़ा किसी अन्य के माध्यम से सन्देश देने में लज्जा आती है । अंत में अपने प्रिय को आँसूओं से सिक्त उस कोरे कागज़ को ही भेज देती है । इस विश्वास के साथ कि उस कोरे कागज़ को देखकर उसे मेरी स्मृति आ जायेगी और अपने हृदय के विरहाग्नि से मेरे हृदय के दुःख को जान जाएगा ।
प्रेम ईश्वर की भाव कृति है । इसे अनुभागों में नहीं बाँटा जा सकता । ईश्वर किसी रूप आकर में हो उस तक पहुँचने का मार्ग प्रेम ही है । प्रेम को कुछ लोग बड़ा सतहा समझते है । यदि किसी की समझदानी छोटी है तो मैं क्या कर सकता हूँ ।
प्रेम की पवित्रता का शानदार वर्णन संसार की सभी भाषा बोली में किया गया कि इसे बस एक पंक्ति में समझा जा सकता है " ज्यों ज्यों डूबे स्याम रंग , त्यों त्यों उज्ज्वल होय ।" कोई डूब कर तो देखे । प्रेम क्या चीज है । प्रेम प्रदर्शन की वस्तु नहीं है । प्रेम छिपाया जाता है । गोस्वामी तुलसी दास जी राम चरित मानस में वाटिका प्रसंग में एक जगह लिखते हैं -
" लोचन मग रामहि उर आनी , दीन्हे पलक कपाट सयानी ।"
जैसे ही सीता के हृदय में राम नेत्रों के मार्ग से उतरे । सीता ने चतुराई पूर्वक झट पलक रूपी कपाट बंद कर लिए । जब तक आप संसार के झमेलों को देखते रहेंगे , प्रेम से वंचित रहेंगे । प्रेम के लिए प्रतीक्षा कीजिये ।