नाग पंचमी: मोबाइल पर झूलती अंगुलियाँ, व्हाट्सअप और फेसबुक पर खेलते कब्बड्डी
सावन में रिमझिम फुहारों के बीच, शहरों व गांवों में झूला झूलने को परम्परा थी। आज यह परंपरा लुप्त होती जा रही है अब तो कहीं कहीं पर ही झूले दिखाई पड़ते हैं। कजरी गायन, मेहंदी की प्रतियोगिताओं के आयोजन बन्द हो गए है।
उत्तर प्रदेश

10:55 PM, July 28, 2025
नागपंचमी पर विशेष
मनोहर कुमार
पूरे साल में सावन एक ऐसा माह जो लोगों को जीवंत बनाता हैं, पर्यावरणीय हरियाली,बारिश की बूंदे लोगों की मन मोह लेते हैं।इस महीने कजरी,झूला,कबड्डी,कुश्ती से पूरा गांव और शहर चहकता है।अब नए दौर और आधुनिक पीढ़ी से भूल चुकी है।हर हाथ में मोबाइल है।मोबाइल पर दिन पर भर अंगुलियों झूलती है।बच्चे गेम और कार्टून में मग्न हैं तो युवा रील बनाने में दक्ष हो गए है।
जे एन टी डेस्क
नई पीढ़ी की महिलाएं, युवतियां, लड़कियां व्हाट्सएप चैटिंग में ही लगी रहती हैं तो झूला कौन झूले- कजरी कौन गाए। घरों की बड़ी बूढ़ियां मन मसोस कर रह जाती हैं। एक समय था सावन में बागों में झूले पड़ जाते थे। घर के बाहर खड़ी नीम के पेड़ पर शाम होते ही झूले के साथ महिलाएं कजरी गाने लगती थीं। नागपंचमी से लेकर हरियाली तीज और भादों अष्टमी तक झूले पड़े रहते थे। प्रदेश में बनारस, मिर्जापुर और रामनगर की कजरी मेले विख्यात थे। बृज का सावन और फागुन मशहूर था। हरियाणा के झूले झूलने के लिए नवविवाहिताऐं ससुराल से मायके जाती थी। सावन में सोमवार को शिव पूजा के साथ अखाड़ा और दंगलों की शुरुआत हो जाती थी।
पहले आम के पेड़ों की डाल पर या घर के बाहर खड़ी नीम के वृक्ष की डालों में सावन के पहले दिन से झूला झूलने की शुरुआत हो जाती थी। गांव या मुहल्ले को लड़कियां, बड़ी- बूढ़ी शाम होते ही नीम या आम के पेड़ के पास आ जाती थीं। पेड़ की मोटी डाल पर मोटी रस्सी से झूला डाला जाता था। सामान्यत: एक मोटे डण्डे को रस्से में बांध कर उसी में एक साथ दो युवतियां, जिनकी हाल ही में शादी हुई होती है और सावन में मायके अपने बाबुल (पिता) के घर आई हुई होती हैं या कुंवारी लड़कियां झुला झुलती हैं। महिलाएं कजरी गाती है।
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जब सावन के महीने में गांवों में जगह-जगह पेड़ों की डाली पर झूले ही झूले नजर आते थे। रात के अंधेरे में गांव की विवाहिता महिलाएं, नव वधुएं और युवतियां पींग मारते हुए ‘आंगन निबिया बाबा लगायो रेशम डोरी डारयो हिंडोला, झूला परा मणि पर्वत पर झूलैं अवध बिहारी न‘ और ‘हरे रामा रिमझिम बरसे पनिया चली तो आव धनिया रे हारी, जैसे लोक धुनों पर आधारित गीत व कजरी गातीं थी तो सारा वातावरण उल्लासित हो उठता था।
जब खेतों में धान की रोपाई करती महिलाओं के ‘सावन मास चले पुरवइया रिमझिम पड़त फुहार‘ और मक्का व बाजरा के खेतों में चिड़िया उड़ाते किसान जब ‘मकई के खेत में चिरई उड़ावै गोरिया‘ गीत सुनकर राह चलते लोगों के पैर ठिठक जाते थे। लेकिन अब सावन के माह में न तो पेड़ों पर झूले हैं, न कजरी के साथ वर्षा ऋतु के लोक गीतों की धुनें।
एक ओर ‘झूला बंद करौ बनवारी‘ से चलकर बालीबुड के ‘मेरा लाखांे का सावन जाय‘ तक पहुंचते-पहुंचते सावन के झूले आधुनिकता की चकाचौंध में शहरी संस्कृति की भेंट चढ़ते गए तो वहीं सावनी, कजरी और मल्हार गाती महिलाएं भी नजर नहीं आतीं। ऐसे में सिनेमा, टेलीविज़न और इण्टरनेट के बढ़ते चलन से वर्षा ऋतु में प्रकृति के संग झूला झूलने और गीतों की परम्परा अब विलुप्त होती जा रही है।
भारतीय संस्कृति में झूला झूलने की परंपरा वैदिक काल से चली आ रही है। कहा जाता है कि भगवान श्रीकृष्ण राधा संग झूला झूलते और गोपियों संग रास रचाते थे। मान्यता है कि इससे प्रेम बढऩे के साथ ही प्रकृति के निकट जाने व उसकी हरियाली बनाए रखने की प्रेरणा मिलती है। घर के आंगन में पेड़ पर झूले पड़ जाते थे और महिलाएं गीत गाती हुई उसका आनंद लेती थीं।
एक समय था जब सावन के आते ही गली-गलियारों और बगीचों में मोर, पपीहा और कोयल की मधुर बोली के बीच युवतियां झूले का लुत्फ उठाया करती थीं। ग्रीष्म ऋतु में सूर्य का प्रचण्ड ताप जहां सबको आकुल कर देता है, वहीं शिशिर की शीतल मन्द बयार सम्पूर्ण वातावरण में जड़ता तथा वसन्त ऋतु का सुधामयी चन्दा मानव की कल्पनाओं में माधुर्य बिखेर देता है।