- मुझे कुछ कहना है - रामजी प्रसाद " भैरव " ललित निबन्ध
अब आप ही बताइए मैं सच बोलूं कि नहीं , क्यों कि झूठ बोलकर पाप जुटाने जैसा जघन्य कर्म क्यों करूँ । वैसे एक बात तो बहुत ही सत्य प्रतीत होती है कि बहुत सारे लोग अब झूठ को सत्य की तरह बोलने लगे हैं । इससे बड़ी भेड़चाल वाली हालत हो गयी है । सच क्या है , झूठ क्या है । इस बात का पता चलना बड़ा मुश्किल काम है । वैसे झूठ ने मनुष्य के स्वभाव से ऐसी दोस्ती कर ली है कि लगता है झूठ ही सच है और सच ही झूठ । मनुष्य का
हिंदी साहित्य

रामजी प्रसाद "भैरव"
10:13 PM, Sep 20, 2025

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जनपद न्यूज़ टाइम्समैं जो कुछ कहने जा रहा हूँ , या जो कहना चाहता हूँ । क्या आप उसे सुनना चाहते हैं । अगर आप नहीं भी चाहते , तो मुझे कोई फर्क नहीं पड़ने वाला , क्यों कि मुझे तो कहना है भई । कबीर ने एक जगह कहा है -
" सांच बराबर तप नहीं , झूठ बराबर पाप "
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अब आप ही बताइए मैं सच बोलूं कि नहीं , क्यों कि झूठ बोलकर पाप जुटाने जैसा जघन्य कर्म क्यों करूँ । वैसे एक बात तो बहुत ही सत्य प्रतीत होती है कि बहुत सारे लोग अब झूठ को सत्य की तरह बोलने लगे हैं । इससे बड़ी भेड़चाल वाली हालत हो गयी है । सच क्या है , झूठ क्या है । इस बात का पता चलना बड़ा मुश्किल काम है । वैसे झूठ ने मनुष्य के स्वभाव से ऐसी दोस्ती कर ली है कि लगता है झूठ ही सच है और सच ही झूठ । मनुष्य का लाभ के लिए किया गया सांठ गांठ बहुत लंबे समय तक नहीं टिकता । वह एक न एक दिन भेद खोल देता है । झूठ की मियाद सत्य जितनी लम्बी नहीं होती । आखिर कबीर के कहे पर कोई कान क्यों नहीं देता । देना चाहिए भाई । वह बे सिर पैर की बात नहीं करते । वे बड़ी गम्भीर और जीवनोपयोगी बात करते हैं । अब देखिए न सतयुग , त्रेता और द्वापर में मनुष्य को पुण्य अर्जित करने के लिए कितने कितने वर्षों तक तपस्या करनी पड़ती थी । वहीं कलयुग के बारे में प्रचलित बात है । कलयुग बस नाम अधारा । चलिए आप को काम धंधा के मारे भगवान का नाम लेने का फुर्सत नहीं है , तो कोई बात नहीं , पर एक काम तो आप कर ही सकते हैं । जीवन में सत्य को महत्व दे कर । सत्य बोलकर । ललकार कर बोलकर । युधिष्ठिर की तरह नहीं । याद तो होगा आप को इतना सा झूठ बोलने पर स्वर्ग जाते समय , उनका पैर का अँगूठा गल गया था । अब जरा अपने बारे में सोचिये । चार पैसा कमाने के लिए , दिन भर कितना झूठ बोलते हैं आप । चलिए कुछ देर के लिए मान लिया । बीबी बच्चों की खातिर , पेट की खातिर बोला गया झूठ , झूठ नहीं है । लेकिन उनका क्या जो अनर्गल झूठ बोलते हैं । बेमतलब झूठ बोलते हैं । अनावश्यक झूठ बोलते हैं । शौक वश झूठ बोलते हैं । आदतन झूठ बोलते हैं । लगाने बझाने के लिए झूठ बोलते हैं । फायदे के लिए झूठ बोलते हैं । उनका क्या क्या गलेगा । कितना कितना गलेगा । स्वर्ग हो या नर्क क्या क्या जाएगा । चलिए यह मान लेते हैं आप पाप पुण्य नहीं मानते । अच्छी बात है । स्वर्ग नर्क नहीं मानते । यह भी अच्छी बात है। पर मनुष्यता का भी कुछ धर्म है । क्या आप सोच पाते हैं । मनुष्य होने के नाते आप की कुछ नैतिक जिम्मेदारी है या नहीं । अपने बाद की पीढ़ी के लिए कुछ नैतिक मूल्य छोड़ जाइये , जिसके सहारे आप की पीढ़ियाँ आगे बढ़ सके । गाँव में एक कहावत खूब चलती है , देखा देखी पुण्य , देखा देखी पाप । आजकल लोग ऐसा ही कर रहे हैं । यह कितना ठीक है , कितना गलत , इस पर कुछ कहना सहज नहीं है । फिर भी मैंने निर्णय लिया है , कुछ कहने का । समाज की बिगड़ती हुई दशा को देखकर लगता है , कुछ कहना आसान है । नहीं , कत्तई नहीं । फिर भी एक दायित्व बोध की दृष्टि से कह रहा हूँ । आज मनुष्य का मनुष्य से विश्वास घटा है । किस कारण घटा है , यह विचारणीय है । मेरी दृष्टि में स्वार्थ का बीज बपन करने वाले लोग , दूसरों के हृदय में स्वार्थ का बीज , ऐसे बोते है जैसे कोई धर्मार्थ कार्य कर रहे हों । जिस तेजी से मनुष्य स्वार्थी होता जा रहा है । उसी का परिणाम है अनाचार और अत्याचार बढ़ रहा है । जिसकी जद में समाज तो था ही , अब परिवार भी आते जा रहे हैं । न समाज में विश्वास का आधार दृढ़ है न परिवार में । मैं यह नहीं कहता कि शत प्रतिशत यह स्थिति है । पर जिस तरह की घटनाएं देखने सुनने को मिल रही हैं । वह हैरत में डालती है । अभी हम लोगों के बचपन में यह देखने को मिलता था कि लोग बुरा को बुरा और भला को भला मुँह पर कह देते थे । आज तो आदमी इतना स्वार्थी हो गया है कि अपना काम बनता तो भाड़ में जाये जनता । मैंने कइयों को देखा है , उन्हें मानवीय धरातल पर मदद करने के बाद , मुँह से धन्यवाद के शब्द नहीं निकले हैं । ऐसा नहीं कि केवल मेरे साथ ऐसा हुआ है , बल्कि जाने कितने लोगों के साथ रोज होता होगा । यह स्वार्थ की प्रवृत्ति मनुष्य को मनुष्य से कितना दूर ले जाती है । ख़ैर , एक बात और जेहन में आ रही है । कुछ स्वार्थी प्रवृत्ति के लोग भी इस बात के लिए जिम्मेदार होते हैं । वे अपने अस्तित्व के लिए संघर्ष करते है । मसलन आप यह समझिए कि कोई व्यक्ति ऐसा हो सकता है कि किसी के प्रति ईर्ष्या का भाव हो , तो जिसको वह पसन्द नहीं करता , उसे भला अच्छा क्यों कहे । वह नहीं कहेगा । कभी नहीं कहेगा । बल्कि उसे समाज उपहास का पात्र बना कर , हल्का करने का प्रयत्न करेगा । एक बार नहीं , बार बार करेगा । दूसरे वो लोग होते है , जो किसी की योग्यता और प्रतिभा को सिरे से खारिज करने का काम करते हैं । समूह बनाकर करते हैं , ताकि सामने वाला अयोग्य साबित हो । ऐसा अयोग्यता का सर्टिफिकेट बाँटने वाले लोग अपनी अयोग्यता के कारण हीन भावना के शिकार होते हैं । अब अपने को श्रेष्ठ और ऊँचा दिखाने के लिए , सामने वाले को नीचा दिखाना अपना परम् कर्तव्य समझते हैं । एक कहावत तो आप ने जरूर सुनी होगी । मुँह में राम बगल में छुरी । जो सगे बनते हैं वो होते नहीं । सगा होने और सगा बनने में बड़ा फर्क है । जो सगे होते है , वह रिश्ते का निर्वाह करते है । मेरा सगा कहने के पीछे रक्त सम्बन्ध से नहीं है । वह समाज का कोई भी हो सकता है । वह आप के कुशल क्षेम की प्रार्थना करता है । सुख दुःख में भागीदारी करता है । आप के प्रति प्रेम और निष्ठा रखते हैं । वे शुभचिंतक होते हैं । उचित राय , मशविरा देते हैं । वहीं जो सगे बनते हैं , वह केवल स्वार्थ का रिश्ता रखते है । स्वार्थ का रिश्ता , स्वार्थ तक सीमित रहता है । काम निकलने के बाद ऐसे रिश्ते कटे पेड़ की तरह धड़ाम हो जाते हैं । वो ऐसे आँख बचाकर निकलते हैं । जैसे पहचानते ही न हों । ऐसे लोगों की एक विशेषता होती हैं सम्बन्धों का निर्माण बहुत तेजी से करते हैं । उतनी ही तेजी से सम्बन्धों को उखाड़ कर फेंकते जाते हैं । ऐसे लोगों के सम्बंध बहुत सारे वजहों को समेटे हुए होते हैं । जैसे कौन कितना काम का आदमी है । झट उसका मोबाइल नम्बर सेव कर लेते हैं । बाद में स्वार्थ पूरा होते ही उसे डिलीट कर लेते है । फिर पलट कर एक बार भी कुशल क्षेम नहीं पूछते । मुझे याद है मेरे एक परिचित , कभी घण्टों बतियाया करते थे , आत्मीयता दर्शाते थे । उनके बारे में कुछ लोगों ने उनके स्वभाव के बारे में मुझे बताया था , फिर भी मैंने कान नहीं दिया । सोचा लोगों की आदत ही होती है ऐसी बात कहने की । कुछ समय लोगों की बात सच हुई । दरअसल वे चाहते थे मैं उनके बेटे को थोड़ा गाइड करूँ । उनकी आत्मीयता देखकर मैं , बड़े मनोयोग से उनके बच्चे को गाइड करता रहा । बाद में उनका स्वार्थ पूरा होते ही , उन्होंने पहचानना बन्द कर दिया । यह दुनिया अनुभवशाला है । यहाँ रोज आदमी सीखता है । दुनियाँ भी रोज बदल रही है । बदलती हुई दुनियाँ को देखकर आप बदले जरूर , मग़र यह स्मरण रहे कुछ मूल्य जीवन में सुरक्षित और संरक्षित रखिये , आप की आने वाली पीढ़ियों के काम आएगी । धन आप की असली पूंजी नहीं है । असली पूंजी है आप का आदर्श , आप के पूर्वजों द्वारा स्थापित मूल्य । धन से आप की जरूरतें पूरी होती हैं । वो भी भौतिक जरूरतें । जीवन में जिसकी जरूरते जितनी कम रहेंगी । वह उतना ही सुखी होगा । आज तो लोग भौतिक जरूरतों को ही सुख समझ बैठे हैं । मैं यह नहीं कहता कि धन मत कमाइये । धन खूब कमाइए । आज आर्थिक युग है । बिना अर्थ के काम चलने वाला नहीं । मग़र मूल्यों की रक्षा करते हुए । मुझे एक घटना याद आ रही है । एक बड़ा अपराधी था । उल्टे सीधे काम करके बहुत धन कमाया । वह मुंबई शहर में रहता था । गाँव में मन्दिर बन रहा था । गाँव वालों ने सोचा चलकर उसी से धन लिया जाय । खूब पैसा मिलेगा मन्दिर जल्दी बन जायेगा । जब लोग उसके पास पहुँचे , उसने खूब आदर सत्कार किया । आने का कारण पूछा तो गाँव के लोगों ने बताया कि मंदिर के लिए चन्दा लेने आये हैं । वह बड़ा खुश हुआ फिर घर के अंदर से जाकर ग्यारह रुपया ले आया । इतना कम पैसा देखकर लोग बड़े नाराज हुए । बोले -" हम सैकड़ों रुपया फूंक कर ग्यारह रुपया लेने आये हैं ।" उसने कहा -" आप लोग मेरे साथ आइये।" वह तहखाने में ले गया । वहाँ सोने , चाँदी , रुपये , पैसे का ढेर लगा था । सबकी आँखें फ़टी की फटी रह गई । उस अपराधी ने कहा -" जब मैं गाँव से पहली बार मुंबई आया तो मेहनत मजदूरी करके इतने पैसे बचा कर रखे थे । ये नेकी से कमाए पैसे हैं । अब आप तय कीजिये कि मंदिर में नेकी का पैसा लगाएंगे या बदी का ।"
गाँव वाले ग्यारह रुपया लेकर लौट आये । इसे कहते हैं मूल्यों की रक्षा । वे चाहते तो करोड़ों रुपये लेकर लौट सकते थे ।