-मुझे अभिनय नहीं आता-रामजी प्रसाद " भैरव " ललित निबन्ध
उम्र मनुष्य को अभिनेता बना देती है । उसका कोई प्रशिक्षण केंद्र नहीं है । समाज ही शिक्षा का केंद्र होता है । यहाँ के अभिनय में सफल होने वाले व्यक्ति को मेकअप नहीं करना पड़ता है । उबड़ खाबड़ चेहरे वाला भी अच्छा अभिनय कर लेता है , वहीं मासूम से दिखने वाले अपने अभिनय का लोहा मनवा देते हैं । नीले ड्रम वाली घटना को बीते बहुत नहीं हुए , किस तरह एक स्त्री ने अपने पति की हत्या , अपने प्रेमी से मिलकर की , और उ
ललित निबंध

रामजी प्रसाद "भैरव"
12:25 PM, Sep 12, 2025

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जनपद न्यूज़ टाइम्सकुछ लोगों का मानना है कि अभिनय जन्मजात गुण होता है । यह सीखने और सिखाने की चीज नहीं है । इस बात से मैं सहमत नहीं होता हूँ । एक दो बार बचपन में नाट्य मंच पर खूब प्रशिक्षण के बाद छोटे मोटे रोल किये । न मैंने अच्छा रोल किया और न किसी ने सराहा । मैंने मान लिया अभिनय मेरे बस का रोग नहीं है ।
उम्र मनुष्य को अभिनेता बना देती है । उसका कोई प्रशिक्षण केंद्र नहीं है । समाज ही शिक्षा का केंद्र होता है । यहाँ के अभिनय में सफल होने वाले व्यक्ति को मेकअप नहीं करना पड़ता है । उबड़ खाबड़ चेहरे वाला भी अच्छा अभिनय कर लेता है , वहीं मासूम से दिखने वाले अपने अभिनय का लोहा मनवा देते हैं । नीले ड्रम वाली घटना को बीते बहुत नहीं हुए , किस तरह एक स्त्री ने अपने पति की हत्या , अपने प्रेमी से मिलकर की , और उसे काट कर , नीले ड्रम में सीमेंट से जमा दिया । बाद में पुलिस ने उन्हें पकड़ा , तो सारा राज बाहर आ गया । बात यह है कि क्या उस महिला ने अपने पति के साथ अभिनय नहीं किया । किया , बढ़िया अभिनय किया । घृणित अभिनय किया । इस अभिनय के लिए उसे पुरस्कार नहीं सजा मिलनी चाहिए । चेहरे मोहरे से वह स्त्री सुंदर थी । लेकिन कुलटा का अभिनय अच्छा किया और उसका प्रेमी बदसूरत और वाहियात शक्ल वाला होकर भी प्रेमी का अच्छा अभिनय किया ।
यह दुनियाँ रंगमंच है , लोग यहाँ आते हैं , अपना रोल करते हैं और चले जाते हैं । अगर हमारा रोल अच्छा होगा तो लोग सराहेंगे , अगर रोल बुरा होगा तो धिक्कारेंगे । एक दिन नहीं , एक बार नहीं , बल्कि बार बार धिक्कारेंगे , सालों साल धिक्कारेंगे । जब कोई जीव शिशु के रूप में जन्म लेता है तो वृद्धावस्था तक क्रमशः कितने प्रकार के रोल करता है । बेटा , भाई , चाचा , पिता , दादा , परदादा और उसी प्रकार स्त्री भी बेटी , बुआ , बहन , पत्नी , दादी , परदादी आदि । इसके अलावा भी समाज में कई प्रकार के रोल हैं । कुछ प्रशिक्षण से प्राप्त होते हैं । तो कुछ रोल बिना प्रशिक्षण के , लेकिन संसार में रहकर विभिन्न प्रकार के रोल करना ही है । कोई सैनिक है , कोई डॉक्टर है , कोई इंजीनियर है । कोई नेता है , कोई समाजसेवी है , कोई चोर तो कोई सन्यासी है । कोई ठग तो कोई लुटेरा है । कितना गिनाऊँ , मैं गिनाते गिनाते थक जाऊँगा और आप गिनते गिनते थक जाएंगे , मग़र यह सिलसिला बन्द नहीं होगा ।
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हमारे यहाँ अभिनय के लिए गुण दोष के हिसाब से नायक खलनायक का वर्गीकरण किया गया है । नायक हमारे यहाँ सुंदर , शुशील , कर्मठी , शोषण और अत्याचार के ख़िलाफ़ आवाज़ बुलंद करने वाला माना गया है । उसमें कुछ स्थापित आदर्श मानक के अनुरूप होने जरूरी हैं । वहीं खलनायक , नायक के विपरीत गुणों वाला दुर्गुणों की खान होता है । उससे समाज में तरह तरह की विसंगतियाँ फैलती हैं । भारत भूमि पर उच्च आदर्शों वाले नायकों की कमी नहीं है । वहीं स्वार्थ के वशीभूत खलनायकों ने सामाजिक संतुलन में बड़ी बाधा पहुँचाई । वावजूद इसके गुण दोषों के विभाजन से नायक - खलनायक का पता चल जाता था । इधर कुछ दशकों में हमारे यहाँ बड़ी घाल मेल वाली स्थिति हो गयी है , कि नायक कौन है और खलनायक कौन है । इससे यह अनुमान करना थोड़ा मुश्किल काम हो गया है कि आख़िर ऐसी प्रवृत्ति आयी कहाँ से । भरतमुनि के नाट्य शास्त्र से लेकर अभिनय के जितने प्रणेता ग्रन्थ हैं । उसमें नायक और खलनायक स्पष्ट चरित्र के हैं । आप देखिए समाज में आज लिपे पुते चेहरे वाले चॉकलेटी नायक क्या क्या गुल खिला रहे हैं । किस पर विश्वास करेंगे आप । अच्छी शक्ल सूरत वाले , मासूम दिखने वाले , आदर्शों की डिंग मारने वाले , भावुकता का स्वांग करने वाले , दया , करुणा का मिथ्या कीर्तन करने वाले , पीठ पीछे घात करने वाले आदि अवगुणों से युक्त लोग भरे पड़े हैं समाज में । पुरुषों और स्त्रियों दोनों का चरित्र बदला है । लगता है भारतीय आदर्शवाद , जो मानवता के निर्माण के पश्चात निकला है , कहीं बंधक बना लिया गया है । किसने बंधक बनाया । कब बंधक बनाया । किस वज़ह से बंधक बनाया । यह किसी को नहीं पता । आज जो लोग अच्छा होने का अभिनय कर हैं । क्या वह जन्मजात है । नहीं साहब , यह जन्मजात नहीं है । मैं इसे सिरे से ख़ारिज करता हूँ । यह अभिनय का परिणाम है । अच्छा बनकर कितना कुछ गड़बड़ी फैला रहें हैं । अगर कोई उनके मासूम चेहरे की ओर जाय तो धोखा खा जाए । कौन जानता है , सुंदर चेहरे के पीछे , कितना घृणित और जहरीला इंसान छिपा है । मनुष्य के इस फितरत का कौन जिम्मेदार है । किसे दोषी मानकर न्याय का दरवाजा खटखटाया जाए । जिसे देखों वही अभिनय कर रहा है । किस लाभ के लिए कर रहा है । अच्छा अभिनय करने की होड़ लगी है । अच्छा बनने की होड़ नहीं है । कुछ लोग तर्क देते हैं , अच्छा बनकर क्या होगा । रोटी कहाँ से आएगी । मेरा मानना है रोटी कमाने और रोटी लूट कर तिजोरी भरने में फर्क है । रोटी कमाने के लिए अभिनय नहीं करना पड़ता है । रोटी लूट कर तिजोरी भरने के लिए अभिनय करना पड़ता है । जिसमें एक ही व्यक्ति को तरह तरह के रोल करने पड़ते हैं । झूठे का , मक्कार का , फरेबी का , दम्भी का , पाखंडी का , स्वार्थी का , लालची का , गुंडा का , तस्कर का , हत्यारा का । अब आप ही बताइए क्या इतने सारे रोल का अभिनय कोई जन्मजात व्यक्ति कर सकता है । मेरा उत्तर तो नहीं होगा । प्रशिक्षण से भी कोई एक ही रोल कर सकता है । फिर आप ही बताइए यह क्षरण आखिर आया कहाँ से । आज आदर्शों का क्षरण समाज को सबसे निचले पाँवदान पर ले आया । कौन दोषी है इसका , किसे दोष दीजियेगा । समाज को । समाज का निर्माण कौन किया है । मनुष्य ने ही न । कुछ तो मानक बनाया होगा मनुष्य ने । जब अंधी आधुनिकता के दौड़ में मनुष्य ने पहले पहल अनुशासन तोड़े तो , क्यों न विरोध जताया । यह तो वही बात हुई , मीठा मीठा गप्प , और कड़वा कड़वा थू । नहीं भाई ऐसे नहीं चलेगा । हमें समझना होगा अपने पूर्वजों के उस त्याग और तपस्या को जिसके बल पर भारत ज्ञान का भाल बनकर संसार में दमक रहा है । मनुष्य होने का अभिनय ठीक नहीं । दयावान होने का अभिनय ठीक नहीं । चरित्रवान होने का अभिनय ठीक नहीं । साधू होने का अभिनय ठीक नहीं । जो नहीं है , उसके होने का अभिनय ठीक नहीं । जो है उसके लिए अभिनय की आवश्यकता नहीं । अभिनय मनोरंजन के लिए रंग मंच तक ठीक है । निजी जीवन में अभिनय लाना ठीक नहीं । कुछ घटनाएं इधर पारिवारिक रिश्तों को लेकर देखने को मिली । बाड़ी शर्मसार करने वाली घटनाएं हुई । मन उचट गया । मिजाज खट्टा हो गया । धत्त तेरे की । यह सब क्या है । भला कोई दामाद अपने सास के साथ प्रेम सम्बन्ध बना सकती है , वह भी प्रेमी प्रेमिका वाला । कितना घृणित और वीभत्स रूप है । पारिवारिक रिश्ते इस कदर चरमरा रहे हैं कि पूछिये मत । आज रील बनाने का भूत , सिर चढ़कर बोल रहा है । जिसमें मर्यादा तार तार हो रही है । बड़े बुजुर्गों ने मुँह पर ताला जड़ लिया है । कोई कुछ बोलता ही नहीं । रील के नाम पर कौन कौन रिश्ते हाशिये पर जा रहे हैं । फूहड़ता और नग्नता का यह घिनौना रूप कितना शर्मनाक है । लेकिन सब चुप हैं । अभिव्यक्ति के अधिकार का यही मतलब है । नहीं , कदापि नहीं । कभी किसी कीमत पर नहीं ।
इसे छोड़िये , अभी कुछ नेताओं के अभिनय के कुछ रील वायरल हुई । अश्लीलता की पराकाष्ठा पार करती हुई ,जिसके वीडियों चित्र देखकर , समझदार आदमी घृणा से मुँह फेर ले । मैं ये नहीं कहता कि ऐसी घटनाएं पहली बार हुई होंगी । लेकिन यह मानसिक दिवालियापन नहीं तो और क्या है । हम समाज को कहाँ लिए जा रहे हैं । किसके कंधे पर लिए जा रहे हैं । कहाँ तक ले जाएंगे इसे । इस अभिनय से कहीं हम उस युग की ओर तो नहीं चल पड़े । जिधर से आने में जाने कितनी सहस्त्राब्दियाँ बीती । जिस गति से आदमी नग्न अथवा अर्धनग्न हो रहा है । जगहें - कुजगहें हो रहा है , उससे तो यही लगता है। हम जल्द ही सभ्यता और संस्कृति भूल कर , असभ्य , वहसी , जंगली जीवन की ओर लौट जाएंगे । इसलिए ये अभिनय छोड़िये और साफ साफ कह दीजिये मुझे अभिनय नहीं आता ।