मानवता ही सनातन धर्म का मर्म
धर्म का मानवीय पक्ष समाज को बाँधने का कार्य करता है। जब एक व्यक्ति धार्मिक आचरण के माध्यम से सत्य, अहिंसा, दया और क्षमा का पालन करता है तो उसका प्रभाव पूरे समाज पर पड़ता है। धर्म समाज में नैतिक अनुशासन लाता है, और यही अनुशासन लोगों के बीच विश्वास, सहयोग और शांति की नींव रखता है।

11:36 PM, Oct 6, 2025

फीचर डेस्क
जनपद न्यूज़ टाइम्स
ध्यान मुद्रा में लेखक मनीष प्रताप सिंह
✍️ मनीष प्रताप सिंह
मनुष्य के जीवन में धर्म की भूमिका सदियों से अत्यंत महत्त्वपूर्ण रही है। धर्म केवल पूजा-पाठ, अनुष्ठान या आस्था का विषय भर नहीं है, बल्कि यह जीवन जीने की एक पद्धति और मानवता के लिए नैतिक मार्गदर्शन भी है। यदि धर्म को उसके शुद्ध और मौलिक स्वरूप में देखा जाए तो उसका मूल उद्देश्य मानवता की रक्षा करना, लोगों के बीच आपसी भाईचारा, करुणा और सह-अस्तित्व की भावना को बढ़ाना है। दुर्भाग्यवश समय-समय पर धर्म को संकीर्ण राजनीतिक या सामाजिक हितों में बांधने की कोशिश हुई, जिससे उसका मानवीय स्वर धूमिल हुआ। किंतु सच्चाई यही है कि हर धर्म का आधार अंततः मानवतावाद ही है।
बुद्ध ने अपने उपदेशों में सबसे अधिक जिस बात पर बल दिया, वह था करुणा और अहिंसा। उनका कहना था कि धर्म वही है जो प्राणी मात्र के दुखों को दूर करने का मार्ग दिखाए। हिन्दू धर्म में ‘वसुधैव कुटुम्बकम्’ की अवधारणा पूरे विश्व को एक परिवार मानकर सबके कल्याण की कामना करती है। इन सभी दृष्टिकोणों से यह स्पष्ट होता है कि धर्म का वास्तविक स्वरूप करुणा और सह-अस्तित्व पर आधारित है।
मानवतावाद का अर्थ है मनुष्य और उसकी गरिमा को सर्वोपरि मानना। जब हम धर्म को मानवतावाद की कसौटी पर कसते हैं तो हमें समझ आता है कि धर्म का हर उपदेश मनुष्य को बेहतर, संवेदनशील और न्यायप्रिय बनाने के लिए है। उदाहरण के तौर पर दान, सेवा, उपवास या तपस्या जैसे धार्मिक अभ्यास केवल व्यक्तिगत मोक्ष का मार्ग नहीं हैं, बल्कि समाज में समता, सहयोग और दूसरों के प्रति संवेदनशीलता विकसित करने के साधन भी हैं।
धर्म का मानवीय पक्ष समाज को बाँधने का कार्य करता है। जब एक व्यक्ति धार्मिक आचरण के माध्यम से सत्य, अहिंसा, दया और क्षमा का पालन करता है तो उसका प्रभाव पूरे समाज पर पड़ता है। धर्म समाज में नैतिक अनुशासन लाता है, और यही अनुशासन लोगों के बीच विश्वास, सहयोग और शांति की नींव रखता है। यदि समाज में यह मानवीय पक्ष कमजोर हो जाए तो धर्म केवल कर्मकांड बनकर रह जाता है।
भारत की परंपरा में हमें अनेक उदाहरण मिलते हैं जहाँ धर्म का मानवतावादी रूप सामने आया। सम्राट अशोक ने कलिंग युद्ध के बाद हिंसा त्यागकर ‘धम्म’ की नीति अपनाई, जिसमें मानव कल्याण और प्राणी मात्र की रक्षा पर बल था। इसी प्रकार महात्मा गांधी ने धर्म के मानवीय स्वरूप को अपनाते हुए सत्य और अहिंसा के बल पर स्वतंत्रता संग्राम को जनांदोलन बना दिया। उनका धर्म किसी पूजा-पद्धति तक सीमित नहीं था, बल्कि यह मानवता की सेवा का मार्ग था।
आज के दौर में धर्म के मानवीय पक्ष को समझना और भी जरूरी हो गया है। आधुनिक समाज तेजी से तकनीकी और भौतिकवादी होता जा रहा है। ऐसे समय में धर्म हमें याद दिलाता है कि असली मूल्य करुणा, सहानुभूति और सहयोग में ही हैं। धर्म का उद्देश्य हमें विभाजित करना नहीं बल्कि जोड़ना है। चाहे वह प्राकृतिक आपदा हो, महामारी हो या सामाजिक संकट—धर्म का मानवीय पक्ष हमें एक-दूसरे की मदद करने, पीड़ितों के साथ खड़े होने और न्याय की लड़ाई लड़ने के लिए प्रेरित करता है।
यह भी स्वीकार करना होगा कि धर्म के नाम पर संकीर्णता, कट्टरता और हिंसा जैसी प्रवृत्तियाँ समाज में विभाजन पैदा करती हैं। यह धर्म का असली स्वरूप नहीं, बल्कि उसकी गलत व्याख्या है। असली चुनौती है धर्म को उसके मानवीय स्वरूप में पुनर्स्थापित करना। इसके लिए धार्मिक नेताओं, विद्वानों और आम नागरिकों को मिलकर प्रयास करना होगा कि धर्म को करुणा, न्याय और भाईचारे के रूप में प्रस्तुत करें। शिक्षा और संवाद इस दिशा में सबसे कारगर साधन हैं।
धर्म का वास्तविक और शुद्ध स्वरूप हमेशा से मानवतावादी रहा है। चाहे वह बुद्ध का करुणा का संदेश हो, ईसा मसीह का प्रेम का उपदेश, इस्लाम का भाईचारे का सिद्धांत या हिन्दू धर्म का विश्व-परिवार का आदर्श—सभी की आत्मा में मानवता ही बसती है। यदि हम धर्म को इसी दृष्टि से देखें तो वह न केवल व्यक्तिगत आत्मिक उन्नति का मार्ग बनेगा बल्कि सामाजिक सौहार्द और वैश्विक शांति का भी आधार बनेगा। आज की सबसे बड़ी ज़रूरत है कि हम धर्म के मानवतावादी पक्ष को अपनाएँ और उसे अपने जीवन में उतारें। यही सच्चा धर्म है और यही मनुष्य होने का अर्थ।
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(लेखक वरिष्ठ चिंतक और विचारक हैं। योग, ध्यान और सनातन धर्म पर गहन चिंतन करते हैं)