दशहरा : असत्य पर सत्य की विजय का पर्व
आध्यात्मिक दृष्टि से रावण दहन का सबसे बड़ा संदेश यह है कि हमें अपने भीतर छिपे क्रोध, लोभ, मोह, ईर्ष्या और अहंकार जैसे दुष्ट प्रवृत्तियों का दहन करना है। राम राज्य की स्थापना हमारे मन में तभी होगी जब हम अपने जीवन में संयम, सत्य और सेवा जैसे गुणों को स्थान देंगे।
उत्तर प्रदेश

9:44 AM, Oct 2, 2025

फीचर डेस्क
जनपद न्यूज़ टाइम्स✍️ डॉ. रविकांत तिवारी
भारत की सांस्कृतिक धारा में कुछ पर्व केवल उत्सव भर नहीं होते, बल्कि वे हमारी आत्मा को झकझोरते हैं, हमें अपने आदर्शों और परंपराओं से जोड़ते हैं। ऐसा ही एक महान पर्व है दशहरा, जिसे विजयादशमी भी कहा जाता है। यह पर्व राम की उस मर्यादा, साहस और न्यायप्रियता का प्रतीक है जिसने पूरी मानवता को यह संदेश दिया कि असत्य, अधर्म और अहंकार का पतन निश्चित है, जबकि सत्य, धर्म और सदाचार की विजय अनिवार्य है।
दशहरा नवरात्रि की साधना के उपरांत आता है। नौ दिनों तक माँ दुर्गा की उपासना कर भक्त अपने भीतर की नकारात्मकताओं को जीतने का संकल्प लेते हैं और दशहरे के दिन उस संकल्प की परिणति असत्य के दहन के रूप में सामने आती है। यही कारण है कि गाँव-गाँव और नगर-नगर में रावण, मेघनाद और कुंभकर्ण के पुतले दहन किए जाते हैं। यह केवल एक धार्मिक अनुष्ठान नहीं, बल्कि एक सांस्कृतिक प्रतीक है जो पीढ़ियों से हमारे बच्चों के मन में यह विश्वास जगाता है कि बुराई कितनी ही शक्तिशाली क्यों न लगे, अंततः उसे सत्य और सद्गुणों के सामने झुकना पड़ता है।
श्री राम और रावण का युद्ध केवल दो व्यक्तियों के बीच का संघर्ष नहीं था, बल्कि धर्म और अधर्म, मर्यादा और अहंकार, संयम और आसक्ति के बीच का संघर्ष था। श्री राम त्याग, धैर्य और सत्य के प्रतीक हैं तो रावण ज्ञान और शक्ति होते हुए भी अहंकार और कामवासना में डूबे हुए व्यक्ति का प्रतिनिधित्व करता है। आज भी यह प्रश्न उतना ही प्रासंगिक है जितना त्रेता युग में था क्या हम अपने भीतर के रावण को पहचान पा रहे हैं? अहंकार, भ्रष्टाचार, लालच, हिंसा, अन्याय और शोषण—ये सब आधुनिक समाज के रावण हैं। दशहरा हमें इनसे लड़ने की प्रेरणा देता है।
यह पर्व सामूहिकता और एकता का भी प्रतीक है। जब पूरा गाँव या पूरा मोहल्ला एक साथ मिलकर मैदान में रावण दहन देखने आता है, तो वह क्षण केवल धार्मिक नहीं बल्कि सामाजिक बंधन का भी होता है। बच्चे, बूढ़े, महिलाएँ, नौजवान—सभी एक साथ उत्सव का आनंद लेते हैं। यह हमें यह सिखाता है कि जब तक समाज एकजुट रहेगा, तब तक कोई भी रावण चाहे वह कितना ही शक्तिशाली क्यों न हो, हमें परास्त नहीं कर सकता।
यदि हम इतिहास पर दृष्टि डालें तो पाते हैं कि भारत का स्वतंत्रता संग्राम भी एक तरह से “राम-रावण युद्ध” ही था। अंग्रेज़ साम्राज्य रावण की तरह शक्तिशाली था, लेकिन भारत की आत्मा में सत्य, बलिदान और त्याग का वह रामत्व था जिसने अंततः उसे परास्त कर दिया। आज लोकतांत्रिक भारत में भी दशहरे का संदेश हमें याद दिलाता है कि सत्ता केवल तभी टिकेगी जब उसमें राम जैसा चरित्र और मर्यादा होगी। यदि कोई शासन रावण की तरह अहंकारी, दुराचारी और शोषणकारी होगा तो उसका अंत भी निश्चित है।
आध्यात्मिक दृष्टि से रावण दहन का सबसे बड़ा संदेश यह है कि हमें अपने भीतर छिपे क्रोध, लोभ, मोह, ईर्ष्या और अहंकार जैसे दुष्ट प्रवृत्तियों का दहन करना है। राम राज्य की स्थापना हमारे मन में तभी होगी जब हम अपने जीवन में संयम, सत्य और सेवा जैसे गुणों को स्थान देंगे।
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वर्तमान समय में समाज जिन चुनौतियों का सामना कर रहा है, वे किसी भी दृष्टि से छोटे नहीं हैं भ्रष्टाचार और अपराध का बढ़ना, युवाओं में नशे और भोगवादी प्रवृत्तियों का फैलना, परिवार और समाज में टूटन, राजनीति में स्वार्थ और अवसरवाद। ये सब हमारे समय के रावण हैं। दशहरा हमें केवल पटाखों और पुतलों से उत्सव मनाने का नहीं, बल्कि अपने जीवन और समाज से इन बुराइयों को समाप्त करने का आह्वान करता है।
युवा शक्ति इस देश का भविष्य है। यदि वे भगवान श्री राम की तरह मर्यादित, संयमी और राष्ट्रहित में समर्पित बनें तो कोई ताकत भारत को रोक नहीं सकती। युवाओं को चाहिए कि वे दशहरे से यह प्रेरणा लें कि वे अपने भीतर के आलस्य और नकारात्मक सोच को जला कर शिक्षा, परिश्रम और राष्ट्रभक्ति के मार्ग पर आगे बढ़ें।
दशहरा केवल एक धार्मिक उत्सव नहीं, बल्कि जीवन जीने की एक प्रेरणा है। यह हमें याद दिलाता है कि जीवन में कितनी भी कठिनाइयाँ क्यों न आएं, अंततः विजय सत्य और धर्म की ही होती है। यदि हम अपने भीतर के रावण को पहचानकर उसका दहन कर दें, तो समाज और राष्ट्र में राम राज्य की स्थापना अपने आप हो जाएगी। आज जब पूरा भारत दशहरे का पर्व मना रहा है, तब हम सबको यह संकल्प लेना चाहिए कि हम अपने जीवन में सच्चाई, ईमानदारी और सेवा के पथ पर चलेंगे। तभी यह पर्व अपने वास्तविक अर्थ में सार्थक होगा।
(लेखक राष्ट्रीय मुद्दों पर लेखन करने वाले वरिष्ठ चिंतक और स्तंभकार हैं)

डॉ रविकांत तिवारी