औगुन चित न धरो भगवान - रामजी प्रसाद " भैरव " ललित निबन्ध
" औगुन चित न धरो भगवान " हो सकता है भगवान हर छोटी मोटी बात नोटिस लेते हों । फिर तो गड़बड़ है । सब किये कराए पर पानी फिर जाएगा । फिर क्या होगा । किससे गुहार लगाएंगे । कौन सुनेगा । मेरा पक्ष कौन रखेगा । इसलिए उन छोटी मोटी गलतियों के लिए , पहले से माफ़ी मांग लेते हैं । अनजाने में हुई गलतियों के लिए माफ़ी मांग लेना भी ठीक है । अपनी ओर से स्वयं का स्वयं के लिए बोध होना छोटी बात नहीं है ।
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रामजी प्रसाद "भैरव"
8:25 AM, September 3, 2025
आदमी भी कितना लोलुप चित्त वाला है , अपने चित्त में जाने क्या क्या अंट संट भरे हुए है और भगवान के सामने गिड़गिड़ा रहा है । इस भाव से गिड़गिड़ा रहा है , कि भगवान उसकी सुन लेंगे । कैसे सुन लेंगे भाई , मुझे तो सहज नहीं लगता । थोड़ा कठिन है । थोड़ा कठिन मैं इसलिए कह रहा हूँ , कि जब निर्मल चित्त वाले पहले से लाइन लगाए हुए हैं , फिर औगुन चित्त वाले के गिड़गिड़ाने से बात थोड़े बनेगी । वैसे भी यह बात सूर कह रहे हैं , सूर का कहना किसी दूसरे के लिए नही है , बल्कि स्वयं के लिए है । जब सूर दास जी स्वयं निर्मल चित्त वाला होकर , यह विचारते है । भाई , हो सकता है जाने अनजाने हमसे कोई भूल हुई हो । तो सूर उस औगुन के संदर्भ में भगवान से कहते हैं । " औगुन चित न धरो भगवान " हो सकता है भगवान हर छोटी मोटी बात नोटिस लेते हों । फिर तो गड़बड़ है । सब किये कराए पर पानी फिर जाएगा । फिर क्या होगा । किससे गुहार लगाएंगे । कौन सुनेगा । मेरा पक्ष कौन रखेगा । इसलिए उन छोटी मोटी गलतियों के लिए , पहले से माफ़ी मांग लेते हैं । अनजाने में हुई गलतियों के लिए माफ़ी मांग लेना भी ठीक है । अपनी ओर से स्वयं का स्वयं के लिए बोध होना छोटी बात नहीं है । बड़ी बात है । मनुष्य का एक चिरपरिचित स्वभाव है । स्वयं की गलतियों पर पर्दा डालना । वह पर्दा डालकर यह सोचता है , सब कुछ ठीक हो गया । कभी कभी ऐसे भरम जीवन पर्यंत बने रहते हैं । यह मनुष्य के स्वार्थ का पर्दा है । अज्ञान का पर्दा है । कुमार्ग का पर्दा है । लालच का पर्दा है । एक गलती छिपाने के लिए मनुष्य , दूसरी गलती करता है । दूसरी छिपाने के लिए तीसरी , इसी प्रकार वह चौथी , पांचवी , छठी , जाने कितनी गलतियों का अंबार लगा देता है । अगर देखा जाय तो मनुष्य कितने बड़े भरम में जीता है । वह इसे तीर्थाटन और पवित्र नदियों में स्नान से पाप पूर्ण कर्म के प्रभाव को नष्ट करना चाहता है । इसी सोच के कारण वह जगह जगह चक्कर काटता है । बेवजह पृथ्वी की परिक्रमा करता है । अरे भाई , पहले चित्त को निर्मल करने का उपाय करों। । चित्त को निर्मल करना इतना आसान होता तो आदमी एक तरफ से पाप करता , दूसरी ओर से निर्मल करता जाता । नहीं , नहीं । इस भरम से बाहर निकलना होगा । सन्त , मनीषियों ने चित्त निर्मल करने के जो उपाय बताए हैं , उन्हें अपनाना होगा ।
" जप माला छापा तिलक , सरै न एको काम ।
मन नाचे कांचे बृथा , सांचे रांचे राम ।
जब मन कच्चा होगा , तो बाहरी आवरण की ओर आकर्षित होगा । बाहरी आवरण से आन्तरिक शुद्धि सम्भव नहीं है । पहली प्रथमिकता आंतरिक शुद्धि की है । लेकिन इसके मन को पक्का करना होगा । जैसे कच्चे बर्तन को अवां में पकाया जाता है , वैसे ही इस शरीर को अवां बना लो । साधना के ताप से इसे रोज पकाओ । एक न एक दिन तुम्हारा मन पक्का हो ही जाएगा । फिर इसे बाहरी आवरण की आवश्यकता नहीं पड़ेगी । तुम्हें जाप माला छापा तिलक से मुक्ति मिल जायेगी । मनुष्य के लिए यह प्राइमरी पाठशाला की तरह है । कितने दिन एक ही पाठशाला में पढोगे । जैसे आगे की पढ़ाई के लिए , तुम्हें आगे बढ़ना जरूरी है । वैसे ही साधना के क्षेत्र में आगे बढ़ना जरूरी होता है । जैसे जैसे साधना में ऊंचाई प्राप्त होगी , वैसे वैसे बाहरी आवरण का मोह छूट जाएगा । मन का कच्चापन दूर हो जाएगा । वह पक्का हो जाएगा । फिर उस पर किसी आडम्बर का असर नहीं होगा । क्यों कि फिर मनुष्य इस रहस्य को जान लेता है कि बाहरी आवरण से ईश्वर को नहीं पाया जा सकता । यह किसी काम की चीज नहीं है । लेकिन मनुष्य है कि जीवन पर्यन्त प्राइमरी की कक्षा का विद्यार्थी बना रहना चाहता है । फिर तुम्हारी गुहार ईश्वर कैसे सुनेगा । पहले कहने लायक तो बन जाओ । जैसे कोई छोटी कक्षा का विद्यार्थी किसी प्रोफेसर के सम्मुख खड़ा होकर बचकाना प्रश्न पूछे । भला प्रोफेसर क्या उत्तर दे , कैसे उत्तर दे । किस भाँति उस बच्चे को संतुष्ट करे । जब मन कच्चा होता है , तो उससे बचकाना सवाल ही खड़े होते हैं । मनुष्य को चाहिए कि यह बात समझ ले , ईश्वर मनुष्य के हर प्रश्न का उत्तर देते हैं । आप को चाहिए कि उस उत्तर को समझने लायक स्वयं को कैसे बनाएं । केवल गिड़गिड़ाने मात्र से कुछ नहीं होने वाला । अवगुण का जन्म अज्ञानता से होता है । अज्ञान रूपी अंधकार को दूर करने के लिए , ज्ञान रूपी प्रकाश का होना जरूरी है ।
जब प्रकाश फैल जाता है , तो अंधकार स्वयं ही नष्ट हो जाता है । मनुष्य को दीपक बनकर , जलना चाहिए , जल कर प्रकाश फैलाना चाहिए । ऐसा प्रकाश जो स्वयं के अलावा दूसरों को भी रोशनी दे । इसे ही मनुष्यता कहते है । परोपकार कहते है ।
भाई , बड़ी सीधी सी बात है । मन को पवित्र करने के अनेक तरीके हैं । कबीर एक जगह बड़ी ढंग की बात कहते हैं ।
" कुड़ कपट काया का निकस्या हरि की गति जब जानी । " कितनी सुंदर बात कबीर कहते हैं । केवल कबीर कहते नहीं , बल्कि दो दो रास्ते सुझाते हैं , और संयोग देखिए , दोनों रास्ते एक ही जगह जाते हैं । एक तो कहते हैं कि कूड़ा करकट , कपट आदि जब शरीर से निकल जाए तो ईश्वर प्राप्त हो सकते हैं । दूसरी बात हरि की गति अर्थात ईश्वर को प्राप्त करने के रहस्य को जानने वाले के हृदय से कूड़ा करकट अर्थात माया , मद , लोभ , अहंकार , स्वार्थ आदि स्वतः निकल जाते हैं । इससे यह बात तो स्पष्ट हो जाती है , ईश्वर तक पहुँचने के दो रास्ते हैं , चाहे आप पहले कूड़ा कचरा निकाल फेंके या फिर ईश्वर तक पहुँचने के मार्ग में बने रोड़े बीन कर हटा दें । तभी आत्मा का परमात्मा से मिलन सम्भव हो पायेगा ।
काया का कूड़ा कचरा हटाने के केवल एक तरीका है नाम स्मरण । मनुष्य यदि साँसों की डोर से ईश्वर के नाम को बांध ले , तो सहज ही हृदय परिक्षेत्र में प्रवेश की गंदगी साफ हो जाएगी । मन निर्मल हो जाएगा । जितने सन्त महात्मा हुए हैं , सब एक बात पर जोर देते हैं , मन को निर्मल बनाना चाहिए । इसके लिए नाम स्मरण बिसरना नहीं चाहिए बस । एक बात पर जरा विचार कीजिये, यदि आप को किसी ऐसे घर में रहने के लिए छोड़ दिया जाय , जहाँ पग पग पर गंदगी का अंबार हो तो निश्चय ही आप घुटन महसूस करेंगे । फिर आप चाहते हैं ईश्वर आप के हृदय में विराजें , तो इसके लिए आप पहले उसकी सफाई कर लें । नाम स्मरण का आसन बिछा दें । उनकी प्रसन्नता में अपनी प्रसन्नता ढूढें ।
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ईश्वर को चाहने वाले व्यक्ति को बाहरी उपादानों से क्या लेना देना । वह तो अपने अंतर्मन की उस दशा में खुश है , जिसमें ईश्वर का निवास है । वह तो उसे किसी दशा में छोड़ना नहीं चाहता । उसे पद , प्रतिष्ठा , धन , वैभव आदि से क्या लेना देना । एक भक्त कवि हुए कुम्भन दास , उनको एक बार बादशाह अकबर ने सीकरी में आमंत्रित किया । उन दिनों वह वही से मुल्क चला रहे थे । सिपाही सन्देशा लेकर पहुँचा , बादशाह का फरमान सुनाया । कुम्भनदास ने स्पष्ट कह दिया -
" संतन को कहाँ सीकरी सो काम ।
आवत जात पनहियाँ टूटी , बिसर गयो हरि नाम ।।
कितने सजग थे कुम्भनदास , जानते थे राजमहलों के चक्कर में पड़े तो , हरि नाम बिसर जाएगा । उसके जगह कूड़ा कचरा भर जाएगा । कूड़ा कचरा से बचना है तो ऐसी परिस्थितियों से बच कर निकल जाना समझदारी है । सन्त लोग प्रायः बच कर निकल जाते हैं , लेकिन आम आदमी बचने की जुगत नहीं लगा पाता । फिर दुःख उठाते हुए छाती पीटता है । छाती पीटने से भला परिस्थितियां बदल जाएंगी । नहीं भाई , ऐसा तो बिल्कुल नहीं है । इसके लिए पहले से सावधान रहना होगा । अपनी गलतियों के लिए क्षमा का भाव सँजोना होगा । ईश्वर के समक्ष अपनी गलतियों को कहना होगा । अव्वल तो यह करना होगा , भरसक कोई गलती हो ही नहीं । जिससे प्रभु के सामने सिर लज्जा से झुकाना पड़े । फिर भी यदि गलती हो जाय तो माफ़ी मांग लेने में कोई हर्ज नहीं ।
अगर सीधे सीधे हिम्मत न पड़े तो दूसरा रास्ता भी है । इस रास्ते को भक्त कवि गोस्वामी तुलसीदास ने चुना था । जैसे कोई छोटा बच्चा अपनी बात को पिता के समक्ष सीधे न रख पाने की दशा में , मां से कहलवाता है । वैसे ही आप भी कहलवा सकते हैं । माँ आप का काम आसानी से कर देगी । पिता से मनवा लेगी । विश्वास नहीं है तो एक बार आजमाकर देखिए । हाँ ,पर बात कहने का शउर होना चाहिए । देखिए तुलसीदास कैसे कहते हैं ।
" कबहुँक अम्ब अवसर पाई ।
मेरिओ सुधि धराइबे , कछु करुन कथा चलाई ।।
इसे कहते हैं टेक्निक लगाना , जैसा तुलसी ने लगाया , कोई क्या लगायेगा । मां कभी भी बेटे के हित की बात सीधे सीधे नहीं कहती । थोड़ी इधर उधर , घर परिवार , रिश्ते नाते की बात छेड़ कर , पहले अपने प्रभाव में लेती है , फिर बेटे की बात कहती है । ऐसे में बात कटने की संभावना कम रह जाती है । मुझे तो बस एक बात समझ में आती है , कोई अपनी गलतियों को पहले ही स्वीकार कर ले तो कोई खामी नहीं है । और बेझिझक कह दे औगुन चित न धरो भगवान ।