आखिर लेखक का काम क्या है - रामजी प्रसाद " भैरव " ललित निबन्ध
एक बात तो सच है जब कोई नया नया लेखक बनता है तो सब लोग उसका उत्साह वर्धन करते हैं । घर से लेकर बाहर तक वाह वाह ही होता है । फिर वही लोग अचानक से रूठने लगते हैं । नाक भौं सिकोड़ने लगते हैं । टीका टिप्पड़ी करने लगते हैं । कुछ लोगों की नज़र में लेखक होना माने निकम्मा होना होता है । घर की जिम्मेदारियों से विमुख , कल्पना लोक में विचरण करने वाले प्राणी के रूप में देखा जाता है । लोगों को लगता हैं चोर , डाकू
निबंध

रामजी प्रसाद "भैरव"
9:12 AM, Aug 31, 2025
कभी कभी मेरे ही नहीं अन्य लेखकों के मन में भी आता होगा कि लेखक होना अपराध है क्या । कोई गुनाह है । कोई गलती है । कोई भूल है । जो लोग एकबारगी देख कर मुँह बिचका लेते हैं । या फिर ऐसे देखते हैं जैसे कोई अजायब घर का भागा हुआ जानवर । जो गलती से लोगों की भीड़ में आ गया हो । नहीं नहीं भाई , आप हमें ऐसे मत देखिए । हम भी आप की तरह हाड़ मांस के इंसान हैं । हमारे सीने में भी दिल है , जिससे दूसरों के दुःख दर्द को समझने की क्षमता रखते हैं । आप हमें घूर घूर क्यों देख रहे हैं । देखिए भाई , एक बात मैं साफ साफ बता दूँ , कि मैं एक लेखक हूँ । लिखना मेरा पेशा है । अच्छा ... अब मुझे समझ में आया , आप को तकलीफ़ क्यों है । क्यों कि मैं एक ईमानदार लेखक हूँ । सच कह रहा हूँ न । आप को यही चिंता खाये जा रही है कि मैं दूध का दूध और पानी का पानी क्यों लिखता हूँ । बुरा मत मानिएगा , यह लेखकों का धर्म होता है । जैसे आप अपना धर्म नहीं छोड़ सकते , वैसे ही हम भी । अब इसमें इतना बुरा मानने वाली क्या बात है । मैं ईमानदारी से लिख कर कोई ईनाम इकराम तो मांग नहीं रहा हूँ । ना ही यह मेरे पेट पालने का जरिया है । बस शौक़ का लेखन है । आप को पसंद आये तो ठीक , न आये तो भी ठीक । मैंने तो कभी आप से शिकायत नहीं की । आप मेरी रचना पढ़िए । उस पर दाद दीजिये । मत दाद दीजिये , पर घूर घूर मत देखिए साहब । अच्छा नहीं लगता ।
एक बात तो सच है जब कोई नया नया लेखक बनता है तो सब लोग उसका उत्साह वर्धन करते हैं । घर से लेकर बाहर तक वाह वाह ही होता है । फिर वही लोग अचानक से रूठने लगते हैं । नाक भौं सिकोड़ने लगते हैं । टीका टिप्पड़ी करने लगते हैं । कुछ लोगों की नज़र में लेखक होना माने निकम्मा होना होता है । घर की जिम्मेदारियों से विमुख , कल्पना लोक में विचरण करने वाले प्राणी के रूप में देखा जाता है । लोगों को लगता हैं चोर , डाकू , तस्कर होना अच्छा है , बनिस्बत लेखक होने से । अगर कोई राजनीति में आ जाय तो क्या पूछने , पौ बारह है भाई । वहाँ तो बस मलाई काटना है । लेकिन लेखक बनकर टुटपुजिये ही तो कहलाना है । गरीब तो ठीक , लेकिन महादरिद्र बनना ठीक नहीं है । झूठ नहीं बोल रहा हूँ , कुछ लोग जो लक्ष्मी के पुजारी हैं , वह सरस्वती उपासकों को कुछ इसी तरह देखते हैं । इसमें मैं उनका दोष नहीं मानता हूँ , बल्कि जुग जमाने का दोष है । इस कलिकाल को अर्थ युग के नाम से देखा जाता है । इसमें लोगों की दो अवधारणाएं एक साथ काम करती हैं , एक नाम की अवधारणा , दूसरी दाम की अवधारणा । नाम जपने से संसार से मुक्ति का मार्ग प्रशस्त हो जाता है और दाम यानि पैसा जपने से सब काम हो जाते हैं । अब लेखक होने के नाते उसे न मुक्ति की कामना रह जाती है । न पैसे की । दैनिक जरूरतें पूरी हो तो पैसे की ओर पलट कर देखे भी न लेखक । लेकिन यह आधा सच है । आधा झूठ । बात यह है कि हर युग में कुछ ऐसे लेखक हुए हैं जो राज सत्ता के इर्द गिर्द परिक्रमा करते पाये जाते हैं । राजसत्ता का गुणगान कर स्वयं को धन्य समझते हैं । किसी बड़े पुरस्कार या अनुदान की आशा में टिप्पस भिड़ाये रहते हैं । उनका वैभव उनकी महिमा का खुद गुणगान करता है । ऐसे लेखक जनता की आवाज कभी नहीं बन पाते । यदि कोई जनता की आवाज बनने की कोशिश करता है तो , वह नक्कारखाने की तूती से ज्यादा कुछ नहीं साबित होता । एक लेखक वे होते हैं , जो दुनियाँ भर के दुःख दर्द को देखने के लिए अभिशापित होते हैं । वे अपने युग के द्रष्टा होते हैं । अपने युग के स्रष्टा होते हैं । वे अपने लेखन में ईमानदारी बरतते हैं । लोग समय को उनकी आँख से देखते हैं । लेखक यदि अपने लेखन में अपने समय , देश काल की परिस्थितियों , को उतार नहीं पाता तो , बड़ा अन्याय करता है । आने वाली पीढ़ियाँ भला क्या जान पायेंगी , वह समय कैसा था । लोग कैसे जीते थे । उनके सामाजिक मूल्य क्या थे । लेखक को विचार करना चाहिए कि साहित्य को समाज का दर्पण कहा गया है । फिर दर्पण पर धूल गर्द जमी हो तो चेहरा कैसा दिखेगा । विद्रूप ही न , क्या आप उस दर्पण में अपनी छवि देखना पसंद करेंगे , जिसमें आप का ही प्रतिविम्ब धूमिल दिखता हो । नहीं , बिल्कुल नहीं पसंद करेंगे ।
